बुधवार, 23 दिसंबर 2009

धर्म : लखनऊ का मुहर्रम



...सुख के साथी तो सब होते हैं लेकिन दु:ख के साथी कम होते हैं। सुख के साथी जितने भी हों, बहुत जल्दी एक दूसरे से दूर हो जाते हैं और सुख की घडि़यों को भूल जाते हैं। दु:ख के साथी कम क्यों न हों, कभी एक दूसरे से नहीं बिछड़ते। ... और दु:ख वह तो कभी दिल में छिपा रहता है ... कभी आंखों में सिमटकर आंसू बनता है, कभी मातम और फरियाद बन जाता है। चूंकि कर्बला का वाक्या दु:खों का इतिहास समेटे है इसलिए दुनिया का हर अच्छे दिल वाला इस दु:ख को अपना ही दु:ख समझने लगता है। दु:खी माताएं कर्बला की बेकस माताओं को याद करती हैं, दु:खी जवान कर्बला के टुकड़े -टुकड़े कर दिये गये जवानों को याद करते हैं और दु:खी घराने जब कर्बला में इमाम हुसैन (अ.स.) की गोद में उनके छह महीने के हसीन-तरीन बच्चे की लाश को देखते हैं, जिसे वह बच्चे की मां को इस हालत में दे रहे हैं कि बच्चे का गला एक भारी तीर से काट दिया गया है तो हर घराना, हर मनुष्य, हर मर्द, हर औरत, हर बच्चा और हर जवान इस दु:ख को अपना ही दु:ख समझने लगता है और इस तरह वह एक दूसरे के साथ हो जाते हैं कि फिर कभी बिछड़ते नहीं। यही वह वजह है कि कर्बला का गम कभी घटता नहीं बल्कि बढ़ता ही जाता है। लखनऊ का मुहर्रम इसलिए भी सारी दुनियां में अपना एक इतिहास के साथ ही मुकाम रखता है क्योंकि इसके इर्द-गिर्द तमाम जगहों पर अबसे 750 साल पहले वह महान लोग आकर आबाद हुए जो फकीरी रखते थे और जो अरब देशों के सताये हुए लोग थे। बहुत जुल्म सहकर वह भारत आ गये थे। ये लोग इमाम हसन व इमाम हुसैन (अ.स.)(रसूल के दोनों नाती) की औलाद में से थे। इनका उस जमाने के हिन्दुओं ने पूरा आदर किया। इनको अपने दरम्यान जगह दी और जब उन्होंने अपने ऊपर हुए जुल्मों-सितम को किनारे रखकर उन बातों को बयां किया जो इमाम हुसैन (अ.स.) से संबंधित थी तो यहां के लोगों ने भी इस चर्चा को अपने धर्म के मुताबिक करना शुरू कर दिया। यही हाल लखनऊ से बाहर पूरे देश में भी  होता रहा कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक।
यूं लखनऊ एक मरकज बनता चला गया। यहां के बादशाहों ने अगर मुहर्रम की बातों को बड़ी आन-बान-शान से बनाया तो हिन्दू धर्म के दीवाली और दशहरा  के जुलूस भी निकलवाये, जिससे आपसी भाईचारा बढ़ता गया. और दुनिया भर में लखनऊ के मुहर्रम को खास जगह मिलती गई। लखनऊ का बड़ा इमामबाड़ा, यहां के मुहर्रम की पौने तीन सौ साल पुरानी जीती-जागती यादगार है। यहां के दीवाली और दशहरे के जुलूस इस भाईचारे की इसलिए बड़ी मिसाल हैं क्‍योंकि जब भी मुहर्रम और दशहरा-दीवाली साथ पड़े तो हिन्दू भाइयों ने मुहर्रम के प्रोग्राम को गम की निशानी समझते हुए अपनी खुशी को आगे-पीछे कर लिया। बर्मा से आये हुए लोगों ने लखनऊ में आग पर मातम करने की शुरुआत की जो आज सारी दुनिया में फैल गई है। मुहर्रम के दस दिनों में मुहर्रम की बात बताने वाले लोग पढ़ते थे लेकिन एक ही मिम्बर से एक ही शख्स दस दिन तक बताये, इसकी शुरुआत भी लखनऊ से ही हुई, इसको अशरा-ए-मजलिस कहते हैं। अपने दौर के महान आलिम सैयद सिब्ते हसन ने इसकी शुरुआत की थी।आज भी ये अशरा लखनऊ के मशहूर मदरसे नाजमिया में होता है। यहां के इमामबाड़ा गुफरामाब में दस मुहर्रम को कर्बला के शहीदों और इमाम हुसैन (अ.स.) के घर वालों को कैदी बना लिये जाने के गम में मजलिस 'शाम-ए-गरीबां' के नाम से शुरू हुई जो आज सारी दुनिया में होती है। यहां के बड़े इमामबाड़ों में रौजा-ए-काजमैन है जिसे हिन्दू धर्म के मानने वालों ने बनाया, इसकी दूसरी मिसाल और कहीं नहीं मिलेगी। लखनऊ में ही चुप ताजिये की बुनियाद रखी गई, जिसकी नकल पूरी दुनिया में होने लगी। भारत में मुस्लिम बादशाहों ने किले बनवाये, बड़े-बड़े मकबरे बनवाये, मस्जिदें बनवाई लेकिन अवध के बादशाहों ने न किले बनवाये, न मकबरे बनवाये। इमाम हुसैन (अ.स.) के नाम पर ऐसे इमामबाड़े, ऐसी मस्जिदें बनवाई कि जिनको देखने पूरी दुनिया से लोग लखनऊ आते हैं। न जाने कितने मन्दिरों  के निर्माण में उन्होंने साथ दिया जिससे दूसरे धर्म के लोग धार्मिक भेदभाव से ऊपर उठकर आपसी भाईचारे को और पक्का कर सकें ताकि मानवता जिन्दा रहे, सफल रहे और बढ़ती ही जाये। हमारा सलाम है अपने इन बुजुर्गो को जिन्होंने यह सब किया और हमारी तमन्ना है कि आगे भी यह सब इसी तरह होता रहे।
-आयतुल्लाह मौलाना हमीदुल हसन   (लेखक विश्व विश्रुत शिया विद्वान हैं)

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

सराहें भैया साहब को या सराहें शैलनाथ को



सराहें भैया साहब को या सराहें उनके बेटे को ! आज की भागमभाग भरी जिंदगी में भला किसे और कहां फुर्सत है अपने शहर के बारे में सोचने की। और फुर्सत अगर है भी तो करें क्यों? स्वनामधन्य डा. शैलनाथ चतुर्वेदी अपने शहर के बाबत सोचते ही नहीं बल्कि पूरे मन और दम-खम के साथ उसे कर दिखाते हैं। शहर  की विशेषताओं से लोग परिचित हों, वह गर्व कर सकें कि हम इसी गौरवशाली लखनऊ शहर के वाशिन्दे हैं। हिन्दी वाड्.मय निधि के जरिये उन्होंने शहर-ए-लखनऊ की खूबियों को एक-एक करके पुस्तकाकार देकर न्यूनतम मूल्य में उसे सुलभ कराने का जो बीड़ा उठाया है वह निश्चय  ही प्रशंसा और अभिनन्दन योग्य है। अब तलक 'हमारा लखनऊ पुस्तक माला' के अन्तर्गत 20 पुस्तकों का  प्रकाशन हो चुका है। पुस्तकों के नाम की बानगी -लखनऊ का बंग समाज, लखनऊ के मोहल्ले और उनकी शान, लखनऊ के कश्मीरी पण्डित, लखनऊ -नवाबों से पहले।
हिन्दी हित के चिन्तक और अनन्य हिन्दी सेवी पद्मभूषण पण्डित श्री नारायण चतुर्वेदी के पुत्र शैलनाथ जी गोरखपुर विश्वविद्यालय में इतिहास के विभागाध्यक्ष रहे। 1994 में सेवानिवृत्त होकर लखनऊ आ गये।  तब से जारी है पिता के सपने को पूरा करने का उनकी कोशिश। भैया साहब के नाम से जग विख्यात पण्डित श्री नारायण जी हिंदी की संवृद्धि कैसे हो, हिंदी कैसे सम्पन्न बने इस निमित्त सदैव व्यग्र रहते थे। उनकी चिंता के दायरे में सामान्य वर्ग के पाठक थे। उन्हें लगता था कि अंग्रेजी में तो प्रत्येक स्तर की पुस्तके मिल जाती हैं, पनडुब्बी -हवाई जहाज से लेकर प्रत्येक वस्तु -विषय पर बड़े-बड़े ग्रंथ तक मिल जाते हैं अंग्रेजी में लेकिन अपनी हिंदी में ऐसा कुछ नहीं। उन्हें खासी उलझन रहती थी  इन बातों को लेकर। 25 हजार रुपये की पूंजी से उन्होंने हिंदी वाड्.मय निधि की स्थापना की। उनकी कल्पना थी कि विविध विषयों पर लेखकों से लिखने का आग्रह जिमायेंगे और उन्हें कुछ पत्र-पुष्प देने के साथ ही प्रकाशक को भी प्रेरित करेंगे। प्रयोग हुआ। कुछ पुस्तकें आई भी लेकिन योजना फलीभूत नहीं हो सकी। रिटायरमेंट के पश्चात अब शैलनाथ जी की जिम्मेदारी थी कि वह निधि का क्या करें। हर पल उनकी चिंता का यही सबब था। बहुत परेशान हुए वह। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि जिस शहर में वह रहते हैं उसके आम-आदमी को कोई जरूरी मालुमात ही नहीं है। लखनऊ में कांग्रेस के कितने अधिवेशन हुए? पहला कहां हुआ? कांग्रेस का एक अध्यक्ष भी हुआ यहां का, पर कोई नाम नहीं बता पायेगा उसका? 2003 में बाबू गंगा प्रसाद वर्मा के बारे में किताब लिखते हुए शैलनाथ जी के मन में विचार उपजा-क्यों न छोटी-छोटी, सस्ती पुस्तकें निकाली जायें। अगले वर्ष उनकी मुलाकात एक महिला से हुई। वह महिला लखनऊ  के बंगाली समुदाय की खास जानकार थी। श्रीमती माधवी बंद्योपाध्याय नाम था उनका। 2005 में उनकी लिखी पहली किताब आई लखनऊ का बंग समाज। यह शैलनाथ जी के विचारों का सूत्रपात था। उन्हें आशंका थी  कि अब गाड़ी कैसे चलेगी? लेकिन समस्याओं का स्वत: हल निकलता गया। लोग मिलते गये और किताबे धकाधक आने लगीं। अब तक बीस किताबे आ चुकी हैं। वीरबल साहनी, लखनऊ के  बाग, 1857 के बाद लखनऊ की लूट और बरबादी, अवध की बेगमें आदि पर तेजी से काम चल रहा है।
शैलनाथ जी कहते हैं मोटी किताबे कोई नहीं पढ़ना चाहता। हर कोई सूचनाएं संक्षेप में चाहता है। उनकी चाहत थी कि किताब का मूल्य कम हो क्योंकि यह कोई धंधा नहीं मिशन था। दस रुपये दाम रखा शुरुआत में, मंशा इतनी ही थी कि बस लागत निकल आये। महंगाई बढ़ने पर दाम 15 रुपये करने पड़े। अब तो कुछ किताबों का दूसरा संस्‍करण निकालने की तैयारी है। लोगों ने इस काम को हाथो-हाथ लिया। लोग पूरा सेट चाहते हैं ताकि किसी अवसर पर उसे भेट करने के काम आ सके। वह कहते हैं कि प्रत्येक नगरवासी में अपने शहर -जिले के लिए दर्द यदि नहीं है तो पैदा किया जाना चाहिए। यही दर्द का नाता नागरिक और नगर को जोड़ने का सूत्र है। ये दर्द तब पैदा होगा जब हम अपने नगर पर गर्व करें, उसकी उन्नति से खुश हों और उसका स्वरूप बिगडे़ तो सात्विक क्रोध प्रकट करें। नगरवासियों और शहर के बीच प्यार का नाता स्थापित करना ही इन किताबों के जरिये हिंदी वाड्.मय निधि का उद्देश्य है। शैलनाथ जी का एक अनुरोध है -आप सभी पुस्तकें अपने घर में रखें, जिससे घर के प्रत्येक सदस्य को अपने शहर का परिचय मिले और वह लगाव महसूस करें। जन्म दिन जैसे विशेष अवसरों पर उपहार अथवा पुरस्कार देने में इन पुस्तकों का उपयोग करे।
77 वर्ष की वय में भी उत्साह और उमंग से लबरेज शैलनाथ जी के व्यक्तित्व में तरुणाई ठाठे मारती है। ऐसे में 'पिता जी ने कहा था'-'पिता जी ऐसा चाहते थे' सरीखे जुमलों के बीच अपने शहर लखनऊ के प्रति उनका कर्तव्य बोध देखते ही बनता है। महत्वाकांक्षा तो सबमें होती है। पोप और शंकराचार्य तक में मगर पण्डित शैलनाथ चतुर्वेदी ऐसे हैं कि काम की चर्चा तो चाहते हैं लेकिन अपने नाम की नहीं। कई किताबों के इस लेखक और अनन्य हिंदी सेवी को साहित्यकार कहवाना भी नहीं सुहाता..'मेरा क्या, ये तो पिताजी ने कहा था।'
व्यक्ति से क्या और कैसे लिखवाना है? शैलनाथ जी बखूबी जानते हैं। बातचीत के दौरान लखनऊ की गलियों की भी चर्चा हुई। जब चलने लगे तो  एक किताब का बयाना उन्होंने हमको दे दिया-'लखनऊ की गलियों पर लिखना है आपको।' मैं उनके आदेशात्मक स्वर को सुनकर हां में सिर हिला देता हूं। अब तो एक समयातंराल बाद फोन की घंटी घनघना उठती है-'क्या हुआ पण्डित जी लखनऊ की गलियों का। कब तक दे रहे हैं।' धन्य थे अनन्य हिंदी सेवी श्रीवर पण्डित नारायण चतुर्वेदी और धन्य है उनके पुत्र पण्डित शैलनाथ चतुर्वेदी की हिंदी उत्थान और शहर की यह निष्‍काम सेवा। - राजू मिश्र