मंगलवार, 26 जनवरी 2010
पद्यश्री रण+जीत = रणजीत
जब वह बातें करते हैं तो मानो मलयाचल की सुख-शीतल सी बयार बहती है और हरि का नाम सुमिरे बिना उनका दिन अधूरा रहता है। नदी, जंगल, पेड़, पहाड़ और जीव-जन्तु उनकी बेपनाह चाहत हैं। जीवन में सुख की मिठास तो है ही लेकिन दुख का पहाड़ टूटने पर भी वह डिगते नहीं। उनके नाम के आगे कुंवर दर्ज होता है मगर देख लीजिये तो अलमस्त फकीर नजर आते हैं। वैभव-विलासिता के प्रदर्शन से उन्हें एलर्जी सी है। पिछले पांच दशक से डा. रणजीत भार्गव नदी, जंगल, पेड़, पहाड़ और जीव-जन्तुओं की सलामती की जंग लड़ रहे हैं। एक मर्तबा दुधवा के टाइगर बिली अर्जन सिंह ने पूछा- रणजीत भार्गव से मिले हो कभी ! मैंने कहा- मिला ही नहीं, काफी कुछ जिया भी है उनके साथ। सीखने को भी खूब मिला उनसे। बिटटू सहगल से मेरा परिचय उन्होंने ही कराया था। बिली बोले- सरकार को रणजीत के काम की पहचान करनी चाहिए। अगर नहीं की तो जंगल और जन्तुओं की हिफाजत के लिए आगे आने में लोग सकुचायेंगे। काश ! बिली आज जीवित होते तो बहुत खुश होते। डा. रणजीत भार्गव को पद्मश्री दिये जाने का ऐलान कर दिया गया है।
कल पद्म पुरस्कारों की सूची देखकर एकबारगी ठिठका। लगा- ये तो अपने भाई साहब हैं डा. रणजीत भार्गव। यह भी संयोग था कि फोन बजा- आवाज रणजीत भार्गव की थी। उनकी खुशी का पारावार न था मगर आवाज में एक तल्खी थी। पद्मश्री मिली उनको और बधाई दे रहे थे हमको। तल्खी थी सरकार द्वारा उनके कामकाज की बहुत देर से शिनाख्त होने पर। आज सुबह अखबार देखे तो सिवाय दैनिक जागरण, किसी ने उन्हे पद्मश्री मिलने का लखनऊ के नजरिये से नोटिस ही नहीं लिया। पद्म अलंकरणों की सूची में उनके नाम के बाद दर्ज था उत्तराखंड। यूपी के पत्रकार बेफिक्र रहे कि डा.रणजीत भार्गव तो उत्तराखंड के हैं और उत्तराखंड के पत्रकार उन्हें लोकेट नहीं कर पा रहे थे।
अपने दौर की नामचीन हस्ती मुंशी नवल किशोर के प्रपौत्र डा.रणजीत भार्गव को प्रकृति और वन्यजीवों से इस कदर लगाव है कि बस पूछिये मत। शिकारियों के बीच रहकर भी उन्हें नफरत रही शिकार से। दस बरस लखनऊ विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र पढ़ाते-पढ़ाते मन उचटा सो पहुंच गये जंगल, जीव-जन्तुओं के बीच। हालांकि जंगल और जीव-जन्तुओं से उनका लगाव बचपन से ही था। सादगी और विनम्रता कूट-कूट कर भरी है उनमे। जिम कार्बेट साहब उनके लिये देवता का दर्जा रखते हैं। डा.रणजीत जब बोलते हैं तो लगता है जंगल में आ गये हैं आप। एकदम सजीव वर्णन, एक शब्द चित्र सा उपस्थित कर देते हैं। 1980 में जर्मनी के राष्ट्रपति ने उन्हें 'आर्डर आफ मेरिट' से नवाजा तो 1998 में नीदरलैण्ड के राजकुमार द्वारा प्रकृति संरक्षण के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें 'आर्डर आफ गोल्डेन आर्क' से सम्मानित किया गया। फिर भी डा.रणजीत अपने ही मुल्क में बेगाने रहे।
एक शाम फोन आया। कीनिया से बोल रहे थे डा.रणजीत। चहचहाते हुए कहने लगे- जानते हो इस वक्त कहां हूं! जिम कार्बेट के ठीक सिरहाने। यहीं ग्रेव में सो रहे हैं वह। उनकी कब्र काफी क्षतिग्रस्त है। उसे दुरुस्त करवाने के लिए जो बन पा रहा है, करने जा रहा हूं। मैने सोचा विलक्षण हैं भाई अपने डाक्टर साहब। बेटे को पद्यश्री दिये जाने के ऐलान से रानी लीला रामकुमार भार्गव गदगद हैं। सूबे की वह पहली महिला हैं जिन्हें पद्यश्री से नवाजा गया था। कहने लगीं- बहुत अच्छा हुआ। दिन-रात लगा रहता था रणजीत। कम से कम सरकार ने पहचाना तो उसका काम। लेकिन डाक्टर साहब। शिकारी जाग रहे हैं और शेर मारे जा रह हैं। पद्यश्री मिलने के बाद शांत होकर मत बैठ जाइयेगा। अपने नाम की साथर्कता सिद्ध कीजिये। रण+जीत = रणजीत। आमीन।
गुरुवार, 21 जनवरी 2010
वैज्ञानिक वास्तु : हमेशा उपयोगी है अच्छा वास्तु वातावरण
कुछ अन्य वैज्ञानिक वास्तु के नियम भी भवन की ऊर्जाओं में संतुलित करने के लिए आवश्यक है, जैसे कार्य करने वाले के बैठने की दिशा तथा स्थान विशेष में प्रयोग किये गये रंग। सामान्यतः पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बैठना विधाध्यन, रिसर्च कार्य तथा ईमानदारी पूर्वक किये जाने वाले कार्यों के लिये उपयोगी है। उत्तर दिशा की ओर मुंह करके बैठना मैनिपुलेशन के कार्यों के लिये उपयोगी होता है।भवन अथवा कार्यस्थल की आंतरिक सज्जा इस प्रकार होनी चाहिये कि उत्तर तथा पूर्व का हिस्सा छत का हो इसके अतिरिक्त ईशान की तरफ स्थान का खुला होना भी सहयोगी होता है। दक्षिण पश्चिम का हिस्सा ऊँचा तथा भारी होना आवश्यक है। ये सामान्य नियम सहयोगी तो हैं किंतु आंतरिक साज-सज्जा में प्रयोग की गयी वस्तुओं की भी अपनी ऊर्जाओं का भी सकारात्मक होना अतिआवश्यक है, नकारात्मक ऊर्जाओं वाली वस्तुयें भवन का पूरा आंतरिक वातावरण नष्ट कर सकती हैं, यह हमेशा याद रखना चाहिए।-संजीव गुप्त
शुक्रवार, 15 जनवरी 2010
हो सके तो माफ करना आन्टी
रह-रहकर गूंजता कुत्तों का रूदन चर्च परिसर में रुकने से रोकता है। ये कुत्ते अपनी मां को खोकर अनाथ हो चुके हैं। उस मां को जिसने इन्हें जना तो नहीं था अलबत्ता पाला-पोसा अपनी औलाद की मानिन्द। जाड़ा पड़ा तो शीरीन ने अपने तन की फिक्र नहीं की, कुत्तों को बेहतरीन स्वेटर पहनाये। भोजन भी एक से बढ़कर एक। कभी गोश्त पका तो कभी दूध और ब्रेड से काम चला लिया। कड़ाके की ठंडक ने जब शीरीन महावीर को लीला तो संबंधी इतना नहीं रोये, जितना कि यह कुत्ते रोये। कुत्ते रोये ही नहीं बल्कि अभी भी चुप लगाने का नाम नहीं ले रहे। लखनऊ के इस्लामिया कालेज के बगल रेड चर्च परिसर में रहने वाली शीरीन महावीर को होश संभलते ही सड़क के आवारा कुत्तों से ऐसा लगाव हुआ कि पूरी जिन्दगानी होम कर डाली उन्होंने कुत्तों पर। शीरीन ने शादी नहीं की। क्यों नहीं की, इस सवाल पर शीरीन कहने लगती- क्या बताऊं साहब। अपने लिये तो सब जीते हैं। मैं तो कुछ भी नहीं करती इनके लिए। सब गाड ही करता-कराता है। मै तो सिर्फ ऊपर वाले की वाचमैन हूं। शीरीन को अपनापे में कुछ लोगों ने खिताब दे डाला-'कुत्ते वाली आन्टी' और आन्टी भी ऐसी कि कभी किसी की बात का बुरा नहीं माना। एक महाविद्यालय में अंग्रेजी की लेक्चरर रही शीरीन का बहन की लड़की सुखबीर को छोड़कर इस दुनिया में कोई सगा न था। नौकरी के दौरान शीरीन ने अपनी पूरी तनख्वाह कुत्तों पर उड़ा डाली और रिटायर हुई तो पेंशन भी कुत्तों पर न्यौछावर कर दी। अपने पहनने -खाने की कभी कोई परवाह नहीं की। कुत्तों के लिए जो बना उसी में से कुछ अपने लिये भी निकाल लिया। कोई कुत्ता बीमार होता तो शीरीन की पेशानी पर बल पड़ जाते। डाक्टरों के यहां दौड़ती-भागती और दवाइयों का इंतजाम करती। खुददारी इतनी कि कभी किसी के सामने हांथ पसारना गंवारा नहीं किया। कोई दशक भर पहले मेरा परिचय हुआ था शीरीन से। हजरतगंज में शान के साथ टहलती शीरीन और उनके पीछे अलमस्त आवारा कुत्तों की एक लम्बी फौज। हर शख्स कभी शीरीन को घूरता तो कभी उनके अमले को और शीरीन थी कि बस अपनी ही धुन में चलती चली जा रहीं थी। कुत्तों के प्रति हमदर्दी शीरीन में कूट-कूट कर भरी थी। अपनी इस हमदर्दी के मूल में वह पिता का स्मरण कर आंखों में आंसू भर लेती। कहती - वह इंसान से कहीं ज्यादा जानवर में प्रभु को पाते थे, यह राज उन्होंने मुझसे जब से शेयर किया था तब से कुत्ते ही मेरे सर्वस्व हैं।
इधर बीच महंगाई ने तोड़ सा दिया था शीरीन को। फंड वगैरह तो पहले ही कुत्तों पर कुर्बान हो चुका था। कभी चूल्हा जला तो ठीक वरना होटल से काम चल जाता। पहले कुत्ते बाद में खुद खाया,ऐसा था शीरीन का दस्तूर। होटलवाला भी कुछ रहम दिल था। शीरीन उसकी तारीफ के पुल बांधती रहतीं। कहतीं-बड़ा नेक इन्सान है। बहुत दुआएं देती उसको। कुत्ते भी शीरीन पर जान छिड़कते थे। शीरीन बीमार तो कुत्ते रोते, शीरीन खुश तो कुत्ते दहाड़ते। कुत्ते आपकी खुशी कैसे भांप लेते हैं, शीरीन बताने लगतीं- अजी इनको तो बस बढि़या खाना चाहिए। अच्छा खाना मिल गया तो सारे के सारे जनाब बहुत खुश हो जाते हैं। कुत्तों के नाम भी शीरीन ने अलबेले रख छोड़े थे। दड़बेनुमा घर में किसी का नाम तेन्दुलकर तो कोई वीरू। शाहरुख से लेकर आमिर तक। कुतियों के नाम भी ऐसे ही कुछ- जैसे रानी मुखर्जी, शिल्पा बगैरह। सब के सब शीरीन की एक पुकार पर भागे चले आते।
इस्लामिया की ओर से गुजरते वक्त शीरीन से यदाकदा मुलाकात हो जाती थी लेकिन फोन पर उनसे सम्पर्क बना रहता। एक रोज सूखी रोटी खाती शीरीन को देख दंग रह गया। शीरीन चीथड़ों में लिपटी थीं। उनकी यह हालत देखी न गई मुझसे। खख्खाशाह तो था नहीं लिहाजा बातो ही बातों में अपनी मित्र रोमा हेमवानी जी से इस प्रसंग की चर्चा कर बैठा। यह उनकी सदाशय वृत्ति ही थी कि बिना सवाल किये एक निश्चित राशि प्रतिमाह भिजवाना उन्होंने शुरू कर दिया। शीरीन ने फोन करके कुछ झेपते हुए बातचीत शुरू की- यह क्यों करवा दिया आपने, खैर गाड की ओर मैडम को थैंक्यू बोलियेगा। अबकी जाड़ा बहुत ही किटकिटाऊ पड़ा। शीरीन का फोन आया-क्या एक कम्बल दिलवा देंगे किसी से। 'नहीं, मैं खुद लेकर दे जाऊंगा'-मैंने कहा लेकिन यह बात महज बतफरोशी होकर रह जायेगी, यह अनुमान न था। कम्बल ले आया था लेकिन शीरीन का फोन आता रहा और मैं रोज वायदा करके भी काम में फंसता रहा। आज अल सुबह शीरीन की भांजी सुखबीर का फोन आया- आन्टी नहीं रहीं, ठंडक लग गई थी। फोन रखते ही मानो सन्निपात सा हो गया, काटो तो खून नहीं-बस एक सवाल-'अब वह कम्बल किसे दूंगा'।
निशातगंज कब्रिस्तान में 79 बरस की न जाने कितने कुत्तों की मां शीरीन दफना दी गई हैं। लखनऊ सूबे की राजधानी है। तमाम पुरस्कार, तमगे यहां घोषित होते और बंटते हैं लेकिन शीरीन सरीखे लोगों का नाम इन पुरस्कारों की सूची में नहीं होता। शीरीन के सारे बच्चे अनाथ हो गये हैं। खुद को भी अपने ही हांथों ठगा महसूस कर रहा हूं मैं। अब किसी रोज कब्रिस्तान में सो रही शीरीन को कम्बल ओढ़ाकर अपनी झेप मिटाने का प्रयास करूंगा लेकिन शीरीन के हांथ में कम्बल न दे पाने का मलाल ताजिन्दगी सालता रहेगा। परमात्मा शीरीन को अपने चरणों में जगह देगा। हो सके तो माफ करना आन्टी। - राजू मिश्र
इधर बीच महंगाई ने तोड़ सा दिया था शीरीन को। फंड वगैरह तो पहले ही कुत्तों पर कुर्बान हो चुका था। कभी चूल्हा जला तो ठीक वरना होटल से काम चल जाता। पहले कुत्ते बाद में खुद खाया,ऐसा था शीरीन का दस्तूर। होटलवाला भी कुछ रहम दिल था। शीरीन उसकी तारीफ के पुल बांधती रहतीं। कहतीं-बड़ा नेक इन्सान है। बहुत दुआएं देती उसको। कुत्ते भी शीरीन पर जान छिड़कते थे। शीरीन बीमार तो कुत्ते रोते, शीरीन खुश तो कुत्ते दहाड़ते। कुत्ते आपकी खुशी कैसे भांप लेते हैं, शीरीन बताने लगतीं- अजी इनको तो बस बढि़या खाना चाहिए। अच्छा खाना मिल गया तो सारे के सारे जनाब बहुत खुश हो जाते हैं। कुत्तों के नाम भी शीरीन ने अलबेले रख छोड़े थे। दड़बेनुमा घर में किसी का नाम तेन्दुलकर तो कोई वीरू। शाहरुख से लेकर आमिर तक। कुतियों के नाम भी ऐसे ही कुछ- जैसे रानी मुखर्जी, शिल्पा बगैरह। सब के सब शीरीन की एक पुकार पर भागे चले आते।
निशातगंज कब्रिस्तान में 79 बरस की न जाने कितने कुत्तों की मां शीरीन दफना दी गई हैं। लखनऊ सूबे की राजधानी है। तमाम पुरस्कार, तमगे यहां घोषित होते और बंटते हैं लेकिन शीरीन सरीखे लोगों का नाम इन पुरस्कारों की सूची में नहीं होता। शीरीन के सारे बच्चे अनाथ हो गये हैं। खुद को भी अपने ही हांथों ठगा महसूस कर रहा हूं मैं। अब किसी रोज कब्रिस्तान में सो रही शीरीन को कम्बल ओढ़ाकर अपनी झेप मिटाने का प्रयास करूंगा लेकिन शीरीन के हांथ में कम्बल न दे पाने का मलाल ताजिन्दगी सालता रहेगा। परमात्मा शीरीन को अपने चरणों में जगह देगा। हो सके तो माफ करना आन्टी। - राजू मिश्र
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