शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

लोक की टेर : ‘अंधरे के हाथ बटेर’

जगदीश पीयूष लोक में जन्‍में, उसी के बीच रहकर उन्‍होंने जीवन के परमाणु संघटित किये। इसीलिए उन्‍हें लोक मन की अच्‍छी पहचान है। लोक भाषा में लोक संस्‍कृति का निर्वाह करते हुए लोकानुभूति, लोक प्रकृति, लोकाराधना, लोक वेदनस, लोक विसंगतियों, लोक मान्‍यताओं और लोक विश्‍वासों का लोक प्रचलित मुहावरों तथा लोकोक्तियों का भरपूर प्रयोग करते हुए कवि पीयूष ने अपनी अवधी कविताओं की रचना की है। लोक के कवि होकर भी वह लोक की पिटी-पिटाई लीक पर नहीं चले, बल्कि उनकी अवधी कविताएं, नये तेवर, नये मूल्‍य और नये प्रतिमानों को लेकर अपने पैरों पर खड़ी हुई हैं। इस प्रकार परम्‍परा की वैसाखी से जन कवि पीयूष की कविताऐ कोसों दूर हैं।

 पीयूष जी जीवनानुभवों के कवि हैं। जिस किसी रचनाकार को लोक-धड़कन की पहचान होती है वह निश्‍चय ही लोकप्रिय होता है। जोक की शुभ भावनायें और आशीर्वाद उसके साथ होते हैं। इन्‍हीं मुंह भर आशीषों का प्रत्‍यक्ष प्रभाव है कि एक ओर पीयूष देश-विदेश के उतार-चढ़ावों, परिवर्तनों, प्रभावों और अभावों के कारण परिणाम एवं निराकरण तक की समझ रखते हैं तो दूसरी ओर पौराणिक युग से विशेष लगाव रखते हुए भी वे अत्‍याधुनिकता को भली-भांति समझते हुए उससे बराबर बचते हैं। इन्‍हीं व्‍यापक अनुभवों के प्रभाव स्‍वरूप पीयूष की कविता अमृत की भांति पाठक के अन्‍तर्मन में रसमय स्‍थान बनाने में सफल हुई है।
’अंधरे के हाथ बटेर’ लोक प्रचलित मुहावरा है, जिसे पीयूष जी ने अवधी कविताओं के संग्रह का नाम देकर यह स्‍पष्‍ट किया है कि उनका निरन्‍तर लोक से जुड़ा रहता है। उनके लिए लोक से बढ़कर कुछ नहीं है। अपनी लोकानुभूति की अभिव्‍यक्ति हेतु कवि ने रूपकों या प्रतीकों का ही नहीं अपितु मिथकों का भी आधार लिया है। इस प्रकार कवि पीयूष ने अपने युगीन संदर्भों से संवलित भावों को अत्‍यंत कौशल से सुनियोजित किया है।
साधनहीन व्‍यक्ति के लिए बस ‘राम’ का ही सहारा होता है। प्रचलित काव्‍योक्ति है-‘निर्बल के बलराम’। भारतीय गांवों में जहां गरीबी आल भी अपने पांव पसारे है। भरपेट भोजन के अभाव में लोग तरह-तरह के रोगों के शिकार हो रहे हैं, फिर भी वे राम भरोसे हैं। उनकी आस्‍था और विश्‍वास में आज भी रंच भर अन्‍तर नहीं आया है। तभी तो ग्रामीण जनजीवन आज भी चातक की भांति उन्‍हीं ‘रामजी’ की टेर लगा रहा है-
केव के दाबे है गरीबी, धरे गठिया औ टी.बी.
परा खटिया पै करा थें बड़ाई राम जी ।
बाटे सगरी दरद कै दवाई रात जी ।।  
कतौ हंसी कतौ आवा थै रोवाई राम जी ।
राम किरपा तोहार, लागा हमरिव गोहार ।
आई दुखिया के काम आना पाई राम जी ।
बाटे सगरौ दरद कै दवाई राम जी ।।
’लीक’ से हटकर चलना सबके बस की बात नहीं होती-लीक छोड़कर वलना असाधारणता का परिचायक होता है। ऐसे लोग अपने मार्ग का स्‍वयं निर्धारण करते हैं, फिर उनके द्वारा निर्मित मार्ग पर अन्‍य जन चलते हैं। ऐसा करने वालों के सम्‍बन्‍ध में प्रचलित काव्‍योक्ति है-
लीक-लीक गाड़ी चलै, लीकहिं चलै कपूत ।
लीक छांडि़ तीनहिं चलैं, सायर सिंह सपूत ।।
पीयूष जी मां भारती के ऐसे सपूत हैं जो अपनी कविता के अनुभूति पक्ष को ही नहीं अपितु अभिव्‍यक्ति पक्ष को भी नए बिम्‍बों, प्रतीकों, मिथकों और रूपकों को पूरे मनोयोग से सजाते हैं। इसीलिए उनके मनोवेग प्रताप जैसी गति, निर्मलता एवं ऊर्जा संवलित होते हैं। वर्तमान समय में लोक संस्‍कृति का जिस तीव्र गति से क्षरण हो रहा है संक्रान्तिकाल में पीयूष जी की अवधी कविताएं हताशा के बीच आशा का अखण्‍ड दीप जलाती हैं। ळाले ही उनका प्रकाश मंद हो, पर प्रकाश तो प्रकाश होता है, और वह भी अखण्‍ड प्रकाश।
 पीयूष जी ‘ताव बाज कवि’ हैं। वास्‍तव में कविता ‘ताव’ में आकर ही लिखी जाती है। ‘ताव’ ठण्‍डा पड़ा नहीं कि फिर चाहे जितना आप प्रयत्‍न करें, कविता नहीं कर पायेंगे। ‘ताव’ ही को हम कवि के अन्‍तर्मन की प्रतिक्रिया कहते हैं, जो लक्षण और तत्‍काल व्‍यक्‍त होती है।  इसके बीच समय का अन्‍तराल कदापि सम्‍भव नहीं होता है। गांव और शहर क्रमश: लोक संस्‍कृति और नगरीय संस्‍कृति के प्रतीक हैं। नगरीय संस्‍कृति विदेशी या पाश्‍चात्‍य संस्‍कृति है, जहां छोटे-बड़े का अन्‍तर और सम्‍मान का विशेष ध्‍यान नहीं रखा जाता। संवेदनशील कवि की आत्‍मा इस विसंगति से कराह उठती है-
लागै हमका सहरवा कै आंच माई जी ।
होइगा नवा कारबार ।
जोतैं बोवैं लम्‍बरदार ।
करै बपवा से पूत तीन पांच माई जी ।
लागै हमका सहरवा कै आंच माई जी ।।
खाई छतिया प हूल ।
गई फंसिया प झूल ।
मारै जियरा दहेजवा पिसाच माई जी ।
लागै हमका सहरवा कै आंच माई जी ।।  
‘अंधरे के होथ बटेर’ की रचनाओं के अवगाहन से भारतीय गांवों की दीन दशा, व्‍यथा और कथा की पूरी झलक मिलती है। ग्रामों में आये अप्रत्‍याशित परिवर्तनों से कवि आश्‍चर्यचकित तो है ही साथ ही वह अत्‍यंत खिन्‍न भी है-
गउना बदला हमार ।
अंगना बखरी दुआर ।
भूली मुंशी जी के घरे कै पढ़ाई माई जी ।
बदला रस्‍ता पैंड़ा ताल औ तलाई माई जी ।।
नाहीं कुर्द सिकहर पै बिलाई माई जी ।
बदला रस्‍ता पैंड़ा ताल औ तलाई माई जी ।।
 पीयूष जी वस्‍तुत: जन-जीवन से निरन्‍तर जुड़े रहने वाले कवि हैं। ठेठ देहाती परिवेश और कविता इन्‍हीं दो में उनकी आत्‍मा आज भी रमती है। खड़ी बोली के इस युग में जहां जन भावनाओं के समक्ष अस्तित्‍व का संकट दिन-प्रतिदिन गहराता जा रहा है, जन भाषा अवधी की मशाल को जलाकर जनचेतना जगाने का सराहनीय कार्य वे पिछले तीन दशक से करते आ रहे हैं। इस प्रकार वातावरण-निर्माण के साथ ही रचना-धर्मिता का निर्वाह करते हुए अवधी कविता को युग-सापेक्ष बनाने हेतु वे कृजसंकल्‍प हैं।
 पीयूष लोक जीवन से सदैव सम्‍बद्ध रहे, इसीलिये उनकी रचनाओं में लोकजीवन की छवियां, समस्‍यायें, कुरूपतायेंख्‍ पीड़ायें, अवसाद, और विशाद ही नहीं हर्षोल्‍लास भी व्‍यक्‍त हुआ है। एक बानगी-
नाहीं दाना पानी बाय ।
नाहीं छप्‍पर छानी बाय ।
कहां बइठी काव खाई कहां सोई माई जी ।
कहां लरिका खेलाई हंसी रोई माई जी ।।
धोती होइगै तार-तार ।
घरे आवै न बिलार । 
नाहीं सूख भात, नाहीं रोटी पोई माई जी ।
जइसे कोढि़या मा खाज ।
पी कै आवै दारूबाज ।
मारै लठिया से के का गोहराई माई जी ।
टूटी जिनगी कै आस,
नाहीं पाई सल्‍फास ।
कौने तरवा इनारा मा समाई माई जी ।
कहां लरिका खेलाई हंसी रोई माई जी ।।
गर्मी गरीबों के लिए भली है । इसीलिए उनके सारे मांगलिक कार्य और मेले-ठेले अधिकांशत: इसी ऋतु में होते हैं। होली इन आयोजना का सिंहद्वार है। अबीर, गुलाल और गुझिया का यह पर्व अपनी रसिकता के लिए भी जाना जाता है। ‘फागुन मा दादा देवर लागैं’ इसी की ओर संकेत करती हुई लोकोक्ति है। पीयूष ने अपनी कविता-‘कमरे से ग्राम्‍य समाज’ कितने ही जीवन्‍त एवं गत्‍यात्‍मक चित्र खींचे हैं, जिनकी मनोहारी छवियों की झलक देखते ही बनती है। पीयूष जी वस्‍तुत: असहायों और शोषितों के प्रति संवेदना एवं सामाजिक अनीतियों के प्रति पाठक के मन में विद्रोह की भावना जगाना चाहते हैं। वे सामाजिक शोषण और उत्‍पीड़न के विरोधी हैं। अवधी कविता की समृद्धि में पीयूष जी द्वारा किये जा रहे सभी रचनात्‍मक कार्य स्‍वागत योग्‍य हैं। -
डा. पाण्‍डेय रामेन्‍द्र
   

रविवार, 25 अक्तूबर 2009

लखनऊ की सरजमी से हुआ था उदघोष- ‘आजादी हमारा पैदाइशी हक है’

लोकमान्‍य बाल गंगाधर तिलक के उदघोष ‘स्‍वराज हमारा जन्‍मसिद्ध अधिकार है’ की प्रेरणा आज से 133 वर्ष पूर्व मुंशी नवलकिशोर द्वारा लखनऊ की सरजमीं से की गई घोषणा ‘आजादी हमारा पैदाइशी हक है’ से उपजी थी। मुंशी नवल किशोर ने उत्‍तर भारत के पहले स्‍वदेशी भाषाई समाचार पत्र ‘अवध अखबार’ के 11 अप्रैल 1875 के संस्‍करण के अपने संपादकीय अग्रलेख में यह घोषणा की थी।

कुछ एक सरकारी प्रकाशनों को छोड़कर आज पुस्‍तक प्रकाशन जगत में लखनऊ का कोई वजूद नहीं रह गया है। हालातों को देखकर भरोसा नहीं होता कि मुंशी नवल किशोर सरीखे महापुरुषों ने लखनऊ की सरजमी को अपनी कर्मभूमि बना कर ऐसी पुस्‍तकों का प्रकाशन किया होगा, जिनसे दुनिया भर में लखनऊ का नाम रोशन हो गया था। मुंशी नवल किशोर द्वारा लखनऊ को दी गई यह गरिमा आज भी मध्‍य एशिया में यथावत कायम है। विभिन्‍न पुस्‍तकालयों की रैकों में आज भी मुंशी नवल किशोर द्वारा प्रकाशित पुस्‍तकें सर्वोत्‍कृष्‍ट साहित्‍य के रूप में पाठकों के अंदर ज्ञान की ज्‍योति जला रही हैं।
नवल किशोर प्रेस अपनी स्‍थापना (23.11 .1858). से लेकर 
सन 1950 तक भारत में लगातार अग्रणी रहा। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की विज्ञानवार्ता ‘विचित्र चित्रण’, ‘गुरुलोसनोवर’ आदि प्रस्‍तकें यहीं प्रकाशित हुईं। कालीदास के ’ऋतु संहार’ के उर्दू अनुवाद ‘अकसीर सुखन’ पियारेलाल शाकिर प्रकाशित होने पर मुंशी प्रेमचंद्र ने ‘माधुरी’ में इसका 27 पृष्‍ठों का विज्ञापन दिया था।
पण्डित बृजनारायण चकबस्‍त व अब्‍दुल हलीम शरर की नोक-झोंक ‘मार्का चकबस्‍त शरर’ काफी दिनों तक ‘अवध अखबार’ में छपती रही। इतना ही नहीं रतननाथ सरशार के ‘किसाने आजाद’, ‘सैर कोहसार’, ‘जामे सरशार’, ‘खुदाई फौजदार’ जैसी महत्‍वपूर्ण कृतियां यहीं छपीं। इसके अलावा सूफी फकीर हजरत मोइनुदीन चिस्ती, हजरत निजामुदीन की लिखी पुस्‍तकों के प्रकाशन का श्री गणेश भी यहीं हुआ। हाजी वारिस अली शाह का जीवन चरित्र पहली बार यहीं से छपा। उन पर जो पुस्‍तकें बाद में छपीं, इसी किताब की मदद से छपीं। उर्दू,फारसी, हिंदी, संस्‍कृत, अरबी में आपसी तकरीरी अनुवाद करने वाले मुंशी जी पहले आदमी थे। कानून में फतवा आलगीरी, लब्‍ध प्रतिष्ठित ग्रंथ पदमावत, मेघदूत, गीत गोविंद, श्रीमद भागवत गीता भी सर्वप्रथम यहीं से प्रकाशित हुए। इस प्रेस ने 124 धर्मशास्‍त्रों का उर्दू में और रामायण गुरुमुखी में छापी।
मैकेंजी वेल्‍स का समग्र इतिहास 1888 में हिंदी व गुरुमुखी में यहां से प्रकाशित हुआ। ‘तारीख नादिरुल असर’ में मुंशी नवल किशोर ने लखनऊ की कहानी खुद कह डाली। सऩ 1886 में यहीं ‘चाणक्‍य नीति शास्‍त्र.’ का उर्दू तर्जुमा ‘लाल चंद्रिका’ छपा। अमेठी नरेश माधव सिंह के मूल व अनुवाद ‘शंगार बत्‍तीसी’, ‘राग प्रकाश’, ‘मीरा स्‍वयंवर’, ‘श्री रघुनाथा चरित’, ‘भक्ति रत्‍नाकर’ आदि तमाम किताबों को प्रकाशित कर इस प्रेस ने हिंदू, सिख व मुसलमानों के मन में अपना अलग ही स्‍थान बना लिया था। ‘कुरान पाक’ को जिस आदर से यहां शाया करा जाता था, सभी मुसलमान भाई जानते थे।
बहरहाल मुंशी नवल किशोर ऐसे साहित्‍य मनीषी थे जिन्‍होंने हिंदी, उर्दू, संस्कत, फारसी, अरबी, गुरुमुखी, गुजराती, पशतो, बंगाली आदि भाषाओं में तकरीबन पांच हजार संदर्भ ग्रंथों के अलावा उर्दू में ‘अवध अखबार’ व अंग्रेजी में ‘अवध रिव्‍यू‘ समाचार पत्रों का प्रकाशन किया। बाद में इसी प्रेस ने ‘माधुरी’ जैसी पत्रिका, प्रेमचंद जैसे साहित्‍यकार, पत्रकार समाज को दिए। उनके सम्‍मान में भारत सरकार ने महज एक डाक टिकट जारी करके अपने कर्तव्‍य की इतिश्री कर ली। दूसरी ओर 1858 से लेकर 1950 तक 92 वर्ष्‍ तक लगातार छपने व सांस्‍कृतिक राजनीतिक चेतना जगाने वाले ‘अवध अखबार’ के लिए तो आज तक कुछ किया ही नहीं गया, जबकि अखबार का जन्‍म ही देश को आजादी दिलाने के लिए हुआ था। यह अंग्रेजी हूकुमत शुरू होते ही मुखरित हुआ और अ्रंग्रेजों के देश छोड1 कर जाते ही मौन हो गया।

सऩ 1896 में छपे ‘कथा सरित सागर’ नामक ग्रंथ के हिंदी अनुवाद की भूमिका में भी अनुवादाकें ने लिखा है, ‘हिंदी भाषा के परम हितैषी भार्गव वशोवतंम मुंशी नवल किशोर (सीआईई) ने विद्वानों के मुख से इस कथा सरित सागर नामक ग्रंथ रत्‍न की प्रशंसा तथा उपदेश भरी अत्‍यंत मनोहर कथाओं को सुन कर अपनी मातृ भाषा हिंदी का गौरव बढाने के लिए हम लोगों को यथोचित धन दे कर इसका अनुवाद कराया।
मूर्धन्‍य साहित्‍यकार अमृतलाल नागर बताते हैं कि ‘गालिब, रतन नाथ सरकार और प्रेमचंद अकेले  इन तीन नामों का लगाव ही मुंशी नवल किशोर और उनके उत्‍तराधिकारियों के गौरव में चार चांद लगाने के लिए काफी हैं। और जहां तक मुंशीजी की प्रेस की ख्‍याति का सवाल है, अंदाजा तो इस बात से ही लगाया जा सकता है कि आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर ने अंग्रेजों की कैद में देशबंद होने के बाद रंगून से अपने काव्‍य प्रकाशित होने यहां भेजे। आतिश, मोमिन, मीर और गालिब जैसे महाकवियों के दीवान भी यहीं प्रकाशित हुए। नागरजी आगे कहते हैं कि अवध अखबार में सरशार से उनका सुप्रसिद़ध उपन्‍यास ‘किसाने आजाद’ लिखा लेना मुंशी नवल किशोर और उनके अत्‍तराधिकारी मुंशी प्रयाग नाराणजी का ही काम था। सरशार साहब के दरवाजे पर मुंशीजी की घोडागाडी खडी रहती थी। उन्‍हें एक कमरे में बंद करा दिया जाता था, तब वे कातिबों को अपना उपन्‍यास लिखाते थे।
प्रेस की चर्चा करते हुए नागरजी कहते हैं कि उस समय तकरीबन 200 लोग यहां काम करते थे और दुनिया की जानी मानी प्रेसों में उसका दूसरा नंबर था। अखबार की लोकप्रियता का यह आलम था कि इसकी बिक्री दिन दूनी रात चौगुनी होने लगी। एक समय तो यह आ गया कि अखबार के लिए कागज की कमी पड1ने लगी लेकिन मुंशीजी का अखबार के प्रति समर्पण ही था कि उन्‍होंने इस कमी को अपनी राह का रोडा नहीं बनने दिया और तुरंत ही ‘अपर इंडिया पेपर मिल’ के नाम से एक पेपर मिल खोल डाली। इस प्रकार मुंशीजी उस दौर के पहले प्रकाशक बन गए, जिन्‍होंने अखबार के लिए अपनी निजी पेपर मिल खोल दी। 

हिन्दू -मुस्लिम एकता के प्रतीक 
  
मुंशी नवल किशोर भार्गव उस जमाने में भी हिंदू मुस्लिम एकता के प्रतीक थे। उन्‍होंने इन दोनों कौमों को एक दूसरे के नजदीक लाने में जितना काम किया शायद ही किसी पत्रकार या साहित्‍यकार ने किया हो। ख्‍वाजा अहमद अब्‍बास ने मुंशी नवल किशोर की 75वीं पुण्‍यतिथि के मौके पर आखिरी कालम में जो लेख लिखा उसका हेहिंग ‘हिंदू मौलवी और मुसलमान पंडित मुंशी नवल किशोर भार्गव’ था।
उन्‍होंने उस लेख में जिक्र किया कि पंडित होने के बावजूद मुंशीजी की दाढी एक मौलवी का सा भ्रम पैदा करती थी। अपने लेख में अब्‍बास साहब ने एक किस्‍सा बयान किया था कि कैसे एक अंग्रेज मुंशीजी को एक मुसलमान प्रकाशक व पत्रकार समझ कर उनकी तारीफ इसलिए कर गया कि उन्‍होंने कुरान के साथ साथ हिंदू व सिख धर्मग्रंथ भी छापे और उसका तर्जुमा भी छापा।


‘स्‍वराज हमारा जन्‍म सिंद़ध अधिकार है’ लोकमान्‍य बाल गंगाधर तिलक के सऩ 1916 के इस क्रांतिकारी उदघोष से 40 साल पहले लखनऊ की सरजमीं से ठीक यही हुंकार उठी थी, भारत के पहले स्‍वदेशी दैनिक ‘अवध अखबार’ से। अवध अखबार के 11 अप्रैल, 1875 के संपादकीय अग्रलेख में घोष किया गया ‘आजादी हमारा पैदाइशी हक है।‘ संपादक थे अपने जमाने के भारत के सर्वाधिक सम्‍मानित व्‍यक्ति मुंशी नवल किशोर भार्गव। वही मुंशी नवल किशोर जो गालिब के दोस्‍त थे, बहादुर शाह जफर की रचनाओं के अकेले प्रकशक  और तिलक महाराज के आदर्श व प्रेरणातत्‍व। तिलक महाराज ने अपने अखबारों ‘मराण’ और ‘केसरी’ के  संपादन और प्रबंधन में मुंशीजी को मिसाल के तौर पर लिया और अखबार के प्रसार व जनता से जुडाव की दृष्टि से आदर्श के तौर पर। तिलक महाराज, गालिब, रतन नााि सरशार और बहादुर शाह जफर ही नहीं, शाहे इरान, बादशाहे अफगानिस्‍तान के तत्‍का‍लीय अंग्रेज वायसराय सहित तमाम साहित्यिक राजनीतिक हिस्‍तयां मुंशीजी नवल किशोर से उनके ‘अवध अखबार’ और ‘नवल किशोर प्रेस’ से किसी न किसी तरह जुडे ही रहे। उर्दू में छपने वाला ‘अवध अखबार’ भारत का किसी भी देशी भाषा का पहला दैनिक अखबार था जो सफलतापूर्वक पूरे 92 वर्ष तक प्रकशित होता रहा। 26 नवंबर, 1858 को इसका पहला अंक प्रकाशित हुआ। शीघ्र ही भारत के सभी बडे शहरों तथा लंदन में इसके संवाददाता नियुक्‍त हो गए। मुंशी नवल किशेर की अपनी सूझबूझ व राजनीतिक सामाजिक पकड का ही नतीजा था कि प्रकाशन आरंभ होने के कुल 10 वर्ष के अंदर ‘अवध अखबार’ की 2 हजार से भी ज्‍यादा प्रतियां बिकने लगीं। मुंशीजी ने यह अखबार उर्दू में निकाला क्‍योंकि उर्दू ही उस समय मुगल व अवध दोनों ही सल्‍तनतों की राजभाषा थी। साथ ही पढे लिखे आम लोगो की भाषा थी। ‘पढे फारसी बेचे तेल, यह देखो कुदरत का खेल’ के उस जमाने में अतिप्रतिष्ठित फारसी भाषा को उन्‍होंने माध्‍यम नहीं बनाया, न ही अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा को। यही कारण रहा कि दिल्‍ली से ले कर पूना, हैदराबाद तक इस अखबार की बराबर की बिक्री होती थी। इसके पाठकों में मिर्जा गालिब, मोमिन, दाग और बहादुर शाह जफर जैसे लोग थे, जिनके नाम अखबार के मासिक चंदे की रसीदें अभी भी रखी हैं। हां, मुंशीजी ने उस समय तेजी से फैलती ‘अंग्रेजी’ भाषा के प्रभाव को भी बखूबी समझा और ‘अवध रिव्‍यू’ नामक अंग्रेजी अखबार भी निकालना प्रारंभ किया।

(‘अवध अखबार’ उस जमाने में पूरे उत्‍तर भारत का सर्वाधिक बिक्री वाला दैनिक था व देशी भाषा का तो पूरे भारत में अग्रणी दैनिक। मुंशी नवल किशोर और उनके उत्‍तराधिकारी प्राग नाराणजी के जमाने में इसकी खबरों और संपादकीय की घर घर में चर्चा होती थी। ‘आजादी हमारा पैदायशी हक है’ उस जमाने में उत्‍तर भारत खासकर युक्‍त प्रांत का चर्चित नारा बन गया था। ‘मारण’ और ‘केसरी’ अखबरों के संपादक व भारत ही नहीं दुनिया भर की राजनीति व अखबारों पर गहरी निगाह व उनमें गहरी रुचि रखने वाले तिलक महाराज पर मुंशी नवल किशोर और अवध अखबार का गहरा असर था। तिलक महराज का उनके जमाने में मुंशी नवल किशोर के उत्‍तराधिकारी प्राग नारायण और विष्‍ण्‍धु नारायण से भी बराबर संपर्क बना रहा। 1916 के अपने देशव्‍यापी दौरे व दिसंबर में लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन के समय वे भार्गव परिवार की राजनीतिक पकड व सक्रियता और ‘अवध अखबार’ एवं ‘अवध रिव्‍यू’ से रूबरू हुए। उस समय 1916 में वह (तिलक महराज) दौरा कर करके देश की सोई हुई शक्ति को जगा रहे थे। उनके व्‍याखयानों का क्‍या पूछना ? व्‍यर्थ का शब्‍दाडंबर न होते हुए भी व्‍याख्‍यान प्रभावशाली तथा जोशीले होते थे। उनके मुंह से निकला हुआ यह वाक्‍य ‘स्‍वराज हमारा जन्‍म सिद्ध अधिकार है और मैं उसे लेकर रहूंगा’ तो भारत के राष्‍ट्रीय इतिहास में अमर हो गया है’। (श्री राम नाथ सुमन हमारे राष्‍ट्र निर्माता पृष्‍ठ-51)
और इस तरह तिलक महराज जैसी राजनीतिक हस्‍ती मुंशी नवल किशोर जैसी साहित्‍यिक व रचनात्‍मक हस्‍ती के योग से आजादी के पैदाइशी हक की हुंकार उस समय के राजनीतिक मंच पर छाए स्‍वराज के रंग में ढलकर ‘स्‍वराज हमारा जन्‍मसिद्ध अधिकार है’ के अमर घोष में बदल गई। एक पत्रकार, विचारक और जननायक के मणिकांचन संयोग से आजादी के दीवानों की आत्‍मा की आवाज माने-जाने वाला यह नारा पूरे भारत में गूंज उठा। वह नारा जो मुंशी नवल किशोर की वैचारिक आम्‍मा को तिलक की वाणी रूपी शरीर मिल जाने से कालातीत बन गया।
मुंशीजी की मौत पर ब्रिटिश सरकार ने अपने कार्यालय यहां तक कि रेलों को भी दो मिनट के लिए स्‍थगित कर दिया गया था। बताते हैं कि मुंशी के देहांत होने के बाद जब उनकी शव यात्रा प्रारंभ हुई तो हजारों मुसलमानों ने उसे मस्जिद के सामने रोक लिया और दृढ़तापूर्वक कहा ‘हम बगैर नमाजेजनाजा पढ़े मुंशी नवल किशोर की शवयात्रा न बढ़ने देंगे।‘ इस तरह मुंशी नवल किशोर पहले हिंदू ब्राह़मण थे जिनकी मौत पर हठपूर्वक नमाजे जनाजा पढ़ कर उनके प्रति मुस्लिमों ने अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।
नवल किशोर प्रेस से ही सऩ 1922 में ‘माधुरी’ जैसी साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन मुंशीजी के पौत्र बिशन नारायण ने किया। इसके संपादकों में मुंशी प्रेमचंद व रूपनारायण पांडेय जैसे धुरंधर पत्रकार व साहित्‍यकार प्रमुख रूप से जाने जाते हैं। माधुरी के प्रकाशन पर सरस्‍वती के संपादक पं: देवीदत्‍त शुक्‍ल ने लिखा था कि ‘माधुरी’ के निकलते ही हिंदी का प्रेस जगत चकित हो गया। इसके पहले कोई जानता ीाी नहीं था कि हिंदी में इतनी बड़ी पत्रिका निकाली जा सकती है। नि:संदेह माधुरी ने हिंदी के मासिक साहित्‍य में क्रांति पैदा कर दी। माधुरी के प्रथम अंक (30 जुलाई, 1922) में ही संपादकों ने घोषित कर दिखाया कि पत्रिका का उद़देश्‍य है ‘हिंदी की लेखन शैली में आवश्‍यक सुधार की चेष्‍टा करना, जनता के मनोरंजन के साथ ही हिंदी और देश की सेवा करना।‘ इस पत्रिका से कोई लाभ उठाने की संचालकों की बिल्‍कुल इच्‍छा नहीं है। 8 फरवरी, 1927 को मुंशी प्रेमचंद को मुंशी बिशन नारायण ने माधुरी की एडीटरी के लिए बुलाया था, वेतन था 200/-प्रति माह। बिशन नारायण के निधन पर प्रेमचंद ने माधुरी में लिखा ‘मुंशी नवल किशोर के खानदान का’ यह सूरज ऐन उस वक्‍त पर डूबा जब वह अपने पूरे उठान पर था। (31 वर्ष की अल्‍पायु)। माधुरी से जुड़ने मिश्रा बंधु, बद्रीनाथ भटट, गोविंद बल्‍लभ पंत, सुमित्रानंदन पंत, निराला, मुकुट बिहारी वर्मा, इलाचंद्र जोशी, भगवती प्रसाद वाजपेयी, चर्तुभुज शास्‍त्री, बांके बिहारी भटनागर, अमृत लाल नागर लखनऊ आए थे और यहां ‘सुधा’ से भी जुड़े रहे।इनके अलावा भगवती चरण वर्मा, वृंदावन लाल वर्मा, मैथिली शरण गुप्‍त, सियाराम शरण, रायकृष्‍ण दास, जगन्‍नाथ दास रत्‍नाकर, लखनऊ आते रहते थे व माधुरी से इनका नजदीकी रिश्‍ता बरकरार रहा।
कबीर, अनीस और मीर का ‘मर्सिया’ साहित्‍य इसी प्रेस की देन है जो सुनने वालों को रुला देता है।
नवल किशोर प्रेस द्वारा 1928 में प्रकाशित पं: महावीर प्रसाद द्विवेदी की पुस्‍तक वैचित्र चित्रण का संपादकीय वक्‍तव्‍य मुंशी प्रेमचंद ने कुछ इस तरह लिखा-‘भारत वर्ष में नवल किेशोर प्रेस ही एक ऐसी संस्‍था है जिसने पहले पहल हिंदी में पुस्‍तक प्रकाशन कार्य शुरू किया और अब तक पूरे उत्‍साह के साथ करता जा रहा है। पिछले 75 वर्षों से जिस उत्‍साह के साथ इस प्रेस ने प्रकाशन का कार्य किया है वह किसी भी भारतवासी से छिपा नहीं है। यहां की प्रकाशित पुस्‍तकों का गांव-गांव और घर-घर में प्रचार है। यही इसके उत्‍कर्ष का ज्‍वलंत प्रमाण है। जब तक जितनी बड़ी-बड़ी हिंदी और संस्‍कृत की पुस्‍तकें इस प्रेस से प्रकाशित हुई हैं उतनी अन्‍य किसी भी प्रेस से नहीं हुई हैं।
’अब नवल किशोर प्रेस के उदार विद्वान स्‍वामी मुंशी बिशन नारायणजी भार्गव ने साहित्यिक क्षेत्र को और भी विस्‍तृत करने का विचार किया है और इसी उद़देश्‍य से उन्‍होंने माधुरी सी सर्वश्रेष्‍ठ मासिक पत्रिका को जन्‍म दिया जो इस समय हिंदी भाषा साहित्‍य की यथा साध्‍य सेवा कर रही है। आपकी चिरकाल से इच्‍छा थी कि हिंदी भाषा में एक ऐसी ग्रंथमाला निकाली जाए जिससे होम यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी के ढंग के समान आकार और विविध विषय में उपयोगी, ग्रंथ प्रकाशित किए जाएं। अब उस पर विचार को आपने कार्यरूप में परिणित करने का संकल्‍प किया है और साहित्‍य सुमन माला के नाम से एक ग्रंथमाला निकाल रहे हैं।’इस माला में एक आकार-प्रकार की प्राय: मौलिक पुस्‍तकें ही निकाली जाएंगी, पृष्‍ठ संख्‍या प्रत्‍येक पुस्‍तक की दो और तीन सौ पृष्‍ठों की रखी जाएगी जिससे जनता में इस माला की पुस्‍तकों का प्रचार बढ़े और लोग इसकी प्रत्‍येक पुस्‍तक को खरीद कर पढ़ सकें। -राजू मिश्र/उपेंद्र पांडेय



‘अवध अखबार निकले तो देश के हालात सुधरेंगे’

-डॉ: रणजीत भार्गव

मुंशी नवल किशोर प्रेस के वर्तमान में उत्‍तराधिकारी राजा रामकुमार प्रेस के मालिक डा: रंजीत भार्गव की हार्दिक इच्‍छा है कि ‘अवध अखबार’ दोबारा निकले। मुंशी नवल किशोर के प्रपौत्र राजा राम कुमार भार्गव व पद़म श्री रानी लीला भार्गव के पुत्र डा: भार्गव राजनीति शास्‍त्र में पी:एच:डी: हैं। भारत जर्मन संबंधों, पर्यावरण और पर्वतारोहण के विशेषज्ञ माने जाते हैं वह। पश्चिम जर्मनी के ‘आर्डर आफ मेरिट सम्‍मान’ से विभूषित डा: भार्गव ने सात वर्ष तक एलयू में अध्‍यापन के बाद 1979 में त्‍यागपत्र दे दिया और सामाजिक, सांस्‍कृतिक क्षेत्र में पूरी तरह व्‍यस्‍त हो गए। उनका परिवार नेहरू परिवार से घनिष्‍ठ रूप से जुड़ा है। डा: भार्गव आजकल सामाजिक व पर्यावरण से संबंधित सरगर्मियों में व्‍यस्‍त हैं। वह विश्‍व प्रकृति निधि के उत्‍तर प्रदेश के अध्‍यक्ष और भारतीय सांस्‍कृतिक निधि के प्रदेशीय अध्‍यक्ष और भारतीय सांस्‍कृतिक निधि के प्रदेशीय सह-संयोजक हैं। अवध अखबार के पुन: प्रकाशन की उनकी कोशिशें के बारे में बातचीत के कुछ अंश-

सरकार ने क्‍या सहयोग दिया मुंशीजी की यादगार बनाए रखने में?

-मुंशी नवल किशोर की स्‍मृति को अक्षुण्‍ण बनाएस रखने की राय में हमें सरकार का सहयोग पूरी तरह से न के बराबर मिला है। 1970 में सिर्फ एक डाक टिकट निकाला था, वह भी डा: जाकिर हुसैन के विशेष प्रयासों के नतीजन। इसकी वजह है राजनीति, क्‍योंकि आज के जमाने में हर चीज राजीतिक पैमाने पर कसी जाती है। 

‘अवध अखबार’ के पुनर्प्रकाशन की क्‍या योजना है?

-मौलाना अबुल कलाम आजाद जब देश के शिक्षा मंत्री थे तब 1956 में उन्‍होंने ‘अवध अखबार’ के पुनर्प्रकाशन का प्रस्‍ताव रखा था मगर हमारे चाचा तेज कुमार भार्गव ने उसे ठुकरा दिया था। उगर उर्दू अकादमी इसी नाम से निकालना चाहे तो हमें इसमें कोई आपत्ति नहीं है। नवल किशोर प्रेस अपने 90 वर्ष के जीवन में हमेशा घाटे में ही चला क्‍योंकि अखबार निकालना और पुस्‍तकों का प्रकाशन हमारे पूर्वजों का शैक था। इस दृष्टिकोण से आज हम ‘अवध अखबार’ निकालें, यह संभव नहीं है।

यदि सरकार का सहयोग मिले तो क्‍या आप ‘अवध अखबार’ के पुन: प्रकाशन के बारे में तैयार हो सकते हैं?

-अवश्‍य ।

 मगर तब के जमाने में और आज में बड़ा फर्क है। कैसे प्रस्‍तुत करेंगे आप उतनी बेहतरीन सामग्री, क्‍योंकि उस जमाने जैसे न लिखने वाले हैं और न उसके कद्रदान?

-हम मौजूदा हालातों को देखते हुए पुराने किस्‍सों को एक नए अंदाज में रखेंगे। नए अंदाज को पुराने तरीके से नहीं। रामायण और महाभारत धारावाहिक की लोकप्रियता को देखते हुए हमें भरोसा है कि कामयाब होंगे। इससे देश के मौजूदा माहौल में भी बदलाव आएगा।