बुधवार, 23 दिसंबर 2009

धर्म : लखनऊ का मुहर्रम



...सुख के साथी तो सब होते हैं लेकिन दु:ख के साथी कम होते हैं। सुख के साथी जितने भी हों, बहुत जल्दी एक दूसरे से दूर हो जाते हैं और सुख की घडि़यों को भूल जाते हैं। दु:ख के साथी कम क्यों न हों, कभी एक दूसरे से नहीं बिछड़ते। ... और दु:ख वह तो कभी दिल में छिपा रहता है ... कभी आंखों में सिमटकर आंसू बनता है, कभी मातम और फरियाद बन जाता है। चूंकि कर्बला का वाक्या दु:खों का इतिहास समेटे है इसलिए दुनिया का हर अच्छे दिल वाला इस दु:ख को अपना ही दु:ख समझने लगता है। दु:खी माताएं कर्बला की बेकस माताओं को याद करती हैं, दु:खी जवान कर्बला के टुकड़े -टुकड़े कर दिये गये जवानों को याद करते हैं और दु:खी घराने जब कर्बला में इमाम हुसैन (अ.स.) की गोद में उनके छह महीने के हसीन-तरीन बच्चे की लाश को देखते हैं, जिसे वह बच्चे की मां को इस हालत में दे रहे हैं कि बच्चे का गला एक भारी तीर से काट दिया गया है तो हर घराना, हर मनुष्य, हर मर्द, हर औरत, हर बच्चा और हर जवान इस दु:ख को अपना ही दु:ख समझने लगता है और इस तरह वह एक दूसरे के साथ हो जाते हैं कि फिर कभी बिछड़ते नहीं। यही वह वजह है कि कर्बला का गम कभी घटता नहीं बल्कि बढ़ता ही जाता है। लखनऊ का मुहर्रम इसलिए भी सारी दुनियां में अपना एक इतिहास के साथ ही मुकाम रखता है क्योंकि इसके इर्द-गिर्द तमाम जगहों पर अबसे 750 साल पहले वह महान लोग आकर आबाद हुए जो फकीरी रखते थे और जो अरब देशों के सताये हुए लोग थे। बहुत जुल्म सहकर वह भारत आ गये थे। ये लोग इमाम हसन व इमाम हुसैन (अ.स.)(रसूल के दोनों नाती) की औलाद में से थे। इनका उस जमाने के हिन्दुओं ने पूरा आदर किया। इनको अपने दरम्यान जगह दी और जब उन्होंने अपने ऊपर हुए जुल्मों-सितम को किनारे रखकर उन बातों को बयां किया जो इमाम हुसैन (अ.स.) से संबंधित थी तो यहां के लोगों ने भी इस चर्चा को अपने धर्म के मुताबिक करना शुरू कर दिया। यही हाल लखनऊ से बाहर पूरे देश में भी  होता रहा कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक।
यूं लखनऊ एक मरकज बनता चला गया। यहां के बादशाहों ने अगर मुहर्रम की बातों को बड़ी आन-बान-शान से बनाया तो हिन्दू धर्म के दीवाली और दशहरा  के जुलूस भी निकलवाये, जिससे आपसी भाईचारा बढ़ता गया. और दुनिया भर में लखनऊ के मुहर्रम को खास जगह मिलती गई। लखनऊ का बड़ा इमामबाड़ा, यहां के मुहर्रम की पौने तीन सौ साल पुरानी जीती-जागती यादगार है। यहां के दीवाली और दशहरे के जुलूस इस भाईचारे की इसलिए बड़ी मिसाल हैं क्‍योंकि जब भी मुहर्रम और दशहरा-दीवाली साथ पड़े तो हिन्दू भाइयों ने मुहर्रम के प्रोग्राम को गम की निशानी समझते हुए अपनी खुशी को आगे-पीछे कर लिया। बर्मा से आये हुए लोगों ने लखनऊ में आग पर मातम करने की शुरुआत की जो आज सारी दुनिया में फैल गई है। मुहर्रम के दस दिनों में मुहर्रम की बात बताने वाले लोग पढ़ते थे लेकिन एक ही मिम्बर से एक ही शख्स दस दिन तक बताये, इसकी शुरुआत भी लखनऊ से ही हुई, इसको अशरा-ए-मजलिस कहते हैं। अपने दौर के महान आलिम सैयद सिब्ते हसन ने इसकी शुरुआत की थी।आज भी ये अशरा लखनऊ के मशहूर मदरसे नाजमिया में होता है। यहां के इमामबाड़ा गुफरामाब में दस मुहर्रम को कर्बला के शहीदों और इमाम हुसैन (अ.स.) के घर वालों को कैदी बना लिये जाने के गम में मजलिस 'शाम-ए-गरीबां' के नाम से शुरू हुई जो आज सारी दुनिया में होती है। यहां के बड़े इमामबाड़ों में रौजा-ए-काजमैन है जिसे हिन्दू धर्म के मानने वालों ने बनाया, इसकी दूसरी मिसाल और कहीं नहीं मिलेगी। लखनऊ में ही चुप ताजिये की बुनियाद रखी गई, जिसकी नकल पूरी दुनिया में होने लगी। भारत में मुस्लिम बादशाहों ने किले बनवाये, बड़े-बड़े मकबरे बनवाये, मस्जिदें बनवाई लेकिन अवध के बादशाहों ने न किले बनवाये, न मकबरे बनवाये। इमाम हुसैन (अ.स.) के नाम पर ऐसे इमामबाड़े, ऐसी मस्जिदें बनवाई कि जिनको देखने पूरी दुनिया से लोग लखनऊ आते हैं। न जाने कितने मन्दिरों  के निर्माण में उन्होंने साथ दिया जिससे दूसरे धर्म के लोग धार्मिक भेदभाव से ऊपर उठकर आपसी भाईचारे को और पक्का कर सकें ताकि मानवता जिन्दा रहे, सफल रहे और बढ़ती ही जाये। हमारा सलाम है अपने इन बुजुर्गो को जिन्होंने यह सब किया और हमारी तमन्ना है कि आगे भी यह सब इसी तरह होता रहे।
-आयतुल्लाह मौलाना हमीदुल हसन   (लेखक विश्व विश्रुत शिया विद्वान हैं)

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

सराहें भैया साहब को या सराहें शैलनाथ को



सराहें भैया साहब को या सराहें उनके बेटे को ! आज की भागमभाग भरी जिंदगी में भला किसे और कहां फुर्सत है अपने शहर के बारे में सोचने की। और फुर्सत अगर है भी तो करें क्यों? स्वनामधन्य डा. शैलनाथ चतुर्वेदी अपने शहर के बाबत सोचते ही नहीं बल्कि पूरे मन और दम-खम के साथ उसे कर दिखाते हैं। शहर  की विशेषताओं से लोग परिचित हों, वह गर्व कर सकें कि हम इसी गौरवशाली लखनऊ शहर के वाशिन्दे हैं। हिन्दी वाड्.मय निधि के जरिये उन्होंने शहर-ए-लखनऊ की खूबियों को एक-एक करके पुस्तकाकार देकर न्यूनतम मूल्य में उसे सुलभ कराने का जो बीड़ा उठाया है वह निश्चय  ही प्रशंसा और अभिनन्दन योग्य है। अब तलक 'हमारा लखनऊ पुस्तक माला' के अन्तर्गत 20 पुस्तकों का  प्रकाशन हो चुका है। पुस्तकों के नाम की बानगी -लखनऊ का बंग समाज, लखनऊ के मोहल्ले और उनकी शान, लखनऊ के कश्मीरी पण्डित, लखनऊ -नवाबों से पहले।
हिन्दी हित के चिन्तक और अनन्य हिन्दी सेवी पद्मभूषण पण्डित श्री नारायण चतुर्वेदी के पुत्र शैलनाथ जी गोरखपुर विश्वविद्यालय में इतिहास के विभागाध्यक्ष रहे। 1994 में सेवानिवृत्त होकर लखनऊ आ गये।  तब से जारी है पिता के सपने को पूरा करने का उनकी कोशिश। भैया साहब के नाम से जग विख्यात पण्डित श्री नारायण जी हिंदी की संवृद्धि कैसे हो, हिंदी कैसे सम्पन्न बने इस निमित्त सदैव व्यग्र रहते थे। उनकी चिंता के दायरे में सामान्य वर्ग के पाठक थे। उन्हें लगता था कि अंग्रेजी में तो प्रत्येक स्तर की पुस्तके मिल जाती हैं, पनडुब्बी -हवाई जहाज से लेकर प्रत्येक वस्तु -विषय पर बड़े-बड़े ग्रंथ तक मिल जाते हैं अंग्रेजी में लेकिन अपनी हिंदी में ऐसा कुछ नहीं। उन्हें खासी उलझन रहती थी  इन बातों को लेकर। 25 हजार रुपये की पूंजी से उन्होंने हिंदी वाड्.मय निधि की स्थापना की। उनकी कल्पना थी कि विविध विषयों पर लेखकों से लिखने का आग्रह जिमायेंगे और उन्हें कुछ पत्र-पुष्प देने के साथ ही प्रकाशक को भी प्रेरित करेंगे। प्रयोग हुआ। कुछ पुस्तकें आई भी लेकिन योजना फलीभूत नहीं हो सकी। रिटायरमेंट के पश्चात अब शैलनाथ जी की जिम्मेदारी थी कि वह निधि का क्या करें। हर पल उनकी चिंता का यही सबब था। बहुत परेशान हुए वह। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि जिस शहर में वह रहते हैं उसके आम-आदमी को कोई जरूरी मालुमात ही नहीं है। लखनऊ में कांग्रेस के कितने अधिवेशन हुए? पहला कहां हुआ? कांग्रेस का एक अध्यक्ष भी हुआ यहां का, पर कोई नाम नहीं बता पायेगा उसका? 2003 में बाबू गंगा प्रसाद वर्मा के बारे में किताब लिखते हुए शैलनाथ जी के मन में विचार उपजा-क्यों न छोटी-छोटी, सस्ती पुस्तकें निकाली जायें। अगले वर्ष उनकी मुलाकात एक महिला से हुई। वह महिला लखनऊ  के बंगाली समुदाय की खास जानकार थी। श्रीमती माधवी बंद्योपाध्याय नाम था उनका। 2005 में उनकी लिखी पहली किताब आई लखनऊ का बंग समाज। यह शैलनाथ जी के विचारों का सूत्रपात था। उन्हें आशंका थी  कि अब गाड़ी कैसे चलेगी? लेकिन समस्याओं का स्वत: हल निकलता गया। लोग मिलते गये और किताबे धकाधक आने लगीं। अब तक बीस किताबे आ चुकी हैं। वीरबल साहनी, लखनऊ के  बाग, 1857 के बाद लखनऊ की लूट और बरबादी, अवध की बेगमें आदि पर तेजी से काम चल रहा है।
शैलनाथ जी कहते हैं मोटी किताबे कोई नहीं पढ़ना चाहता। हर कोई सूचनाएं संक्षेप में चाहता है। उनकी चाहत थी कि किताब का मूल्य कम हो क्योंकि यह कोई धंधा नहीं मिशन था। दस रुपये दाम रखा शुरुआत में, मंशा इतनी ही थी कि बस लागत निकल आये। महंगाई बढ़ने पर दाम 15 रुपये करने पड़े। अब तो कुछ किताबों का दूसरा संस्‍करण निकालने की तैयारी है। लोगों ने इस काम को हाथो-हाथ लिया। लोग पूरा सेट चाहते हैं ताकि किसी अवसर पर उसे भेट करने के काम आ सके। वह कहते हैं कि प्रत्येक नगरवासी में अपने शहर -जिले के लिए दर्द यदि नहीं है तो पैदा किया जाना चाहिए। यही दर्द का नाता नागरिक और नगर को जोड़ने का सूत्र है। ये दर्द तब पैदा होगा जब हम अपने नगर पर गर्व करें, उसकी उन्नति से खुश हों और उसका स्वरूप बिगडे़ तो सात्विक क्रोध प्रकट करें। नगरवासियों और शहर के बीच प्यार का नाता स्थापित करना ही इन किताबों के जरिये हिंदी वाड्.मय निधि का उद्देश्य है। शैलनाथ जी का एक अनुरोध है -आप सभी पुस्तकें अपने घर में रखें, जिससे घर के प्रत्येक सदस्य को अपने शहर का परिचय मिले और वह लगाव महसूस करें। जन्म दिन जैसे विशेष अवसरों पर उपहार अथवा पुरस्कार देने में इन पुस्तकों का उपयोग करे।
77 वर्ष की वय में भी उत्साह और उमंग से लबरेज शैलनाथ जी के व्यक्तित्व में तरुणाई ठाठे मारती है। ऐसे में 'पिता जी ने कहा था'-'पिता जी ऐसा चाहते थे' सरीखे जुमलों के बीच अपने शहर लखनऊ के प्रति उनका कर्तव्य बोध देखते ही बनता है। महत्वाकांक्षा तो सबमें होती है। पोप और शंकराचार्य तक में मगर पण्डित शैलनाथ चतुर्वेदी ऐसे हैं कि काम की चर्चा तो चाहते हैं लेकिन अपने नाम की नहीं। कई किताबों के इस लेखक और अनन्य हिंदी सेवी को साहित्यकार कहवाना भी नहीं सुहाता..'मेरा क्या, ये तो पिताजी ने कहा था।'
व्यक्ति से क्या और कैसे लिखवाना है? शैलनाथ जी बखूबी जानते हैं। बातचीत के दौरान लखनऊ की गलियों की भी चर्चा हुई। जब चलने लगे तो  एक किताब का बयाना उन्होंने हमको दे दिया-'लखनऊ की गलियों पर लिखना है आपको।' मैं उनके आदेशात्मक स्वर को सुनकर हां में सिर हिला देता हूं। अब तो एक समयातंराल बाद फोन की घंटी घनघना उठती है-'क्या हुआ पण्डित जी लखनऊ की गलियों का। कब तक दे रहे हैं।' धन्य थे अनन्य हिंदी सेवी श्रीवर पण्डित नारायण चतुर्वेदी और धन्य है उनके पुत्र पण्डित शैलनाथ चतुर्वेदी की हिंदी उत्थान और शहर की यह निष्‍काम सेवा। - राजू मिश्र

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

वास्तु-समझें रंगों का महत्व

किसी भवन की ऊर्जा को संतुलित करना वास्तुं का मूल ध्येय है। ऊर्जा विज्ञान की एक उप शाखा है कम्पन विज्ञान। यदि कम्पन विज्ञान पर नजर डालें तो ज्ञात होता है कि ब्रहमाण्‍ड तो कम्पन का अथाह महासागर है। वस्तुओं की प्रकृतियां उनके कम्पनों के मुताबिक होती हैं। इस सत्य को अगरचे हम वास्तु के संदर्भ में अध्ययन करें और गंभीरता से देखें तो विदित होता है कि हम अपने चतुर्दिक व्यातप्त कम्पनों से प्रभावित हो रहे हैं। विभिन्न‍ प्रकार के ये कम्पन विद्युत चुम्‍बकीय क्वां टम अथवा एस्ट्रषल स्तर पर हो सकते हैं। रंग और ध्‍वनि के स्तर से ये हमको प्रभावित करते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि रंग और ध्वनि इस प्रकार की ऊर्जाएं हैं जिन्होंने प्रकृति एवं वातावरण के माध्यम से हमें अपने वर्तुल में घेर रखा है। यही कारण है कि वास्तु् विज्ञान में ध्वनियों तथा रंगों का स्‍थान अत्यंधिक महत्वपूर्ण है।



पंचतत्व के रंग- हमारे शरीर का निर्माण पंच तत्वों से हुआ है। प्रत्येक तत्व के सूक्ष्म, अति सूक्ष्म अवयव हमारे शरीर में विदयमान हैं। इन अवयवों का अपना-अपना रंग होता है। मानव शरीर के प्रत्‍येक हिस्से का अपना आभामंडल होता है। शास्त्रों के अनुसार पंच तत्वों के रंगों का विभाजन कुछ इस प्रकार किया गया है। जल का रंग हरा, पृथ्वी का रंग नारंगी एवं बैगनी, अग्नि का रंग लाल तथा पीला, वायु का बैगनी तथा आकाश का रंग नीला माना गया है। रंगों का वैज्ञानिक महत्व वैज्ञानिक शोधों एवं अन्तरराष्ट्रीय स्‍तर पर किये गये अध्ययन के अनुसार रंगों की प्रकृति तथा प्रभाव का ज्ञान होता है। शोधों से जो निष्कर्ष निकलता है वह काफी महत्वपूर्ण है। चिकित्सा्, मनोविज्ञान, भवनों के अंदरूनी हिस्सों में रंगों का उचित रूप से प्रयोग करके कार्य क्षमता में वृद्धि तथा स्‍वास्‍थ्‍य के प्रति रंगों की भूमिका और प्रभाव को प्रभावित किया जा सकता है। शोधों से यह निष्कर्ष भी प्राप्त हुआ है कि व्‍यक्तिगत स्तर पर रंगों का चयन तब्दील हो जाता है। इससे पता चलता है कि भिन्न -भिन्न रंग अलग-अलग व्‍यक्तियों पर विभिन्‍न -विभिन्‍न प्रभाव डालते हैं। वैज्ञानिक शोधों में अधिकांश अलग-अलग समूहों पर समान प्रभाव पडने वाले कारणों व प्रभावों का अध्ययन किया गया है। शंका यह उठती है कि क्या वास्तव मे रंग मानव के लिए बहुत प्रभावशाली है। इस शंका का निवारण करने के लिए मनुष्य स्वयं प्रयोग करके अपने नतीजे निकाल सकते हैं। - नीले रंग के स्विमिंगपूल में तैरने से हाइपरटेंशन के मरीज का उच्च रक्तंचाप कम हो सकता है। - यदि आप पूरे दिन लाल अथवा काले रंग के मोजे पहनते हैं तो रात में जब आप मोजे उतारते हैं तो काले की अपेक्षा लाल रंग के मोजे में पैर ज्‍यादा गर्म रहते हैं।


-गुलाबी रंग के पैक मे रंग में रखी गयी पेस्ट्रीम ज्या दा स्वाादिष्ट होती हैं। - लाल प्रजाति की काली मिर्च दिखाने पर मुर्गी के अंडों की जर्दी (पाक) लाल रंग की हो जाती है। - रंग ऊर्जा का ही रूप हैं, ये स्‍वास्‍थ्‍य वर्धक प्रभाव रखते हैं। सामान्यत: एक ही रंग के भोज्‍य पदार्थों में समान प्रकार के विटामिन प्राप्त होते हैं। उदाहरण के तौर पर पीले व हरे प्राकृतिक भोज्य पदार्थ जैसे नीबू, मौसमी आदि विटामिन सी के स्रोत होते हैं। - रंग हमें सशक्त रूप से प्रभावित करते हैं, हमारे शरीर व मन पर विभन्न कारण से रंगों का प्रभाव पड़ता है। ये कारण भौगोलिक, सामाजिक, शिक्षागत अथवा अनुवांशिक हो सकते हैं। यहां एक ध्यान देने वाली बात यह भी है कि हमारे शरीर की ग्रंथियों (इंडोसेराइनल सिस्टम) का तानाबाना सीधे तौर पर रंगों से प्रभावित होता है। इसका मुख्य कारण यह है कि हमको अनुवांशिक रूप से मिले न्यूरो ट्रांसमीटर पिटसवर्ब पेंट कम्पनी ने रंगों पर एक प्रयोग के दौरान एक कम्पनी को चुना। कुछ कर्मचारियों के कमरे में रात्रि के दौरान दीवारों पर लाल रंग कर दिया गया। शुरुआत के कुछ घंटों में इन कर्मचारियों ने अन्य कर्मचारियों की तुलना में दोगुना कार्य किया मगर शाम होते-होते इनमें आपस में झगड़ा शुरू हो गया। इस प्रयोग का अध्ययन मनोवैज्ञानिक कर रहे थे। उन्होंने निष्क र्ष निकाला कि लाल रंग के अत्यधिक प्रयोग की वजह से रक्तो में एडरेनलिन का स्तर बढ़ गया था, फलस्वंरूप इस प्रकार की घटना हुई। इसके विपरीत पीले, हरे एवं नीले रंगों का प्रयोग दवा के तौर पर शांति और दर्द निवारक के रूप में किया जाता है। नारंगी रंग ऊर्जावान माना जाता है। नारंगी तथा पीले रंगों का प्रयोग कब्जो दूर करता है, इसके प्रयोग से गुर्दे आदि शुदध होने आरम्भ हो जाते हैं। वस्तु्त: विद्युत चुम्बाकीय इंद्रघनुषी (स्पेथक्ट्ररम) का हिस्सा होते हैं ये रंग। इस आक्टेदव शेष हिस्सा कास्मिक किरणें, गामा किरणें, क्ष किरणें (एक्स( रे) परा बैगनी किरणें (अल्‍ट्रा वायलेट), इन्फ्राहरेड किरणें, रेडियो किरणें तथा हर्टज किरणें होती हैं। ये समस्त किरणें विद्युत चुम्ब्कीय ऊर्जा का ही रूप हैं। इनसे जो ऊर्जा उत्‍सर्जित होती हैं उसका विशेष हिस्सा जिसकी तरंग लम्बाई 380 से 760 मिली माइक्रान के बीच होती है उसे हम अपने नेत्रों से देख सकते हैं। सामान्‍य रूप से सभी रंग उसी श्रेणी में आते हैं। -संजीव गुप्त

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

हिंदी पत्रकारिता के नेपोलियन थे विनोद शुक्ल




विनोद जी से मेरी पहली मुलाकात, यदि मुझे सही ढंग से याद है तो दिलीप शुक्‍ला ने करवाई थी। उन दिनों दिलीप शुक्‍ला आजके कानपुर संस्‍करण में संवाददाता थे तथा विनोद जी आजअखबार के सब कुछ। कहने को वे प्रबंध सम्‍पादक थे पर थे वे अखबार की सांस। चाहे चपरासी रहे हों या मशीनमैन, उप सम्‍पादक या संवाददाता, सभी विनोद जी को खुश देखना चाहते थे। इसीलिए वे जी-जान से काम करते थे और चाहते थे कि विनोद जी उन्‍हें मुस्‍कराकर देखें। यह किसी डर या लोभ की वजह से नहीं होता था बल्कि उस प्‍यार के बदले में होता था, जो उन्‍हें विनोद जी से मिलता था। 
 यह प्‍यार ही विनोद जी की सबसे बड़ी ताकत भी थी। जो एक बार उनसे मिल लिया, उनका ही होकर रह गया। मैं लखनऊ में रविवारका प्रतिनिधित्‍व कर रहा था। आज जो इन पंक्तियों को पढ़ेंगे उनमें से हो सकता है कुछ को न मालुम हो कि रविवारने हिन्‍दी पत्रकारिता में गुणात्‍मक योगदान दिया है। विनोद जी रविवारके प्रशंसकों में थे और मेरे नाम से परिचित थे। जब मिले तो लगा कि सालों पुरानी जान-पहचान है। वैसे यह विनोद जी की खासियत भी थी कि वे किसी को आभास नहीं होने देते कि वे उसे नहीं जानते हैं। 
कानपुर यूं भी आना-जाना होता था क्‍योंकि अस्‍सी के शुरुआती दशक में कानपुर खबरों का केंद्र हुआ करता था। इटावा, बुंदेलखंड और फर्रुखाबाद के त्रिकोण का केंद्र था कानपुर। इटावा में चम्‍बल जहां नेकसे जैसे डाकुओं का वास था, फर्रुखाबाद और मैनपुरी छविराम का कार्यक्षेत्र था तथा बुंदेलखंड में फूलन, विक्रम मल्‍लाह, लाला राम - श्री राम तथा गया कुर्मी की वजह से लोग कांपते रहते थे। मैं जब जाता पहले विनोद जी के पास जाता। विनोद जी चाय या लस्‍सी मंगवाकर, अपने केबिन में दिलीप शुक्ला सहित संबंधित पत्रकारों को बुला लेते। बात शुरू हो जाती और वह मेरे दिमाग में एक नक्‍शा बना जाती। इन सारे इलाकों का मुख्‍य अखबार उन दिनों आजथा, इसलिए स्‍वाभाविक रूप से वह उन दिनों संदर्भ केंद्र का काम करता था।
सबसे ज्‍यादा केंद्र में फूलन थीं, उन्‍हें अखबार दस्‍यु सुंदरी भी  लिखते थे। रविवारके सम्‍पादक सुरेंद्र प्रताप सिंह ने जिम्‍मेदारी सौंपी कि फूलन पर बड़ी रिपोर्ट लिखनी है। फूलन उन दिनो बीहड़ में मशहूर नहीं हुई थी। मैं कई सप्‍ताह तक बीहड़ में पड़ा रहा। जालौन, पंचनदा के जंगलों और गुढ़ा का पुरवा के बीच फिरकनी बन गया और तब कई बार की फिसलन के बाद फूलन से मुलाकात हुई। सारे संसार के सामने फूलन देवी और विक्रम मल्‍लाह की कहानी सामने आई। देश और दुनिया के अखबारों ने उसका अनुवाद किया। किसी ने उसका सहारा लिया तथा कुछ बड़े पत्रकारों ने तो उसमे अपनी कल्‍पना तक मिलाई। विनोद जी ने उस रिपोर्ट के बाद मेरे साथ दिलीप शुक्ला को कहीं भी, कभी भी आने-जाने की छूट दे दी।
जो भी पत्रकार बाहर से आता था, वह पहले विनोद जी से मिलने की कोशिश करता था। आनन्‍द बाजार ग्रुप के पत्रकार तो विनोद जी को अपने ग्रुप के सीनियर की तरह देखते थे। बिना हिचक उनके घर रुक जाना, जो भी मदद हो मांग लेना, उनकी आदत बन गई थी। निर्मल मित्रा, कल्‍याण मुखर्जी तो विनोद जी के परिवार के सदस्‍य हो गए थे। दोनों सम्‍पादक, एसपी सिंह और एमजे अकबर विनोद जी को साधिकार फोन कर देते थे और सूचनायें मांग लेते थे। यही विनोद जी का बड़प्‍पन था, वे अपने अखबार के अलावा भी बाकी सब की भी मदद करते थे। संयोग था कि उन दिनों कानपुर में उनके अलावा कोई नाम नहीं था जिसके पास जाकर कोई बात की जा सकती थी और यह संयोग अंत तक बरकरार रहा। जब विनोद जी लखनऊ आये तो उनके बिना कानपुर सूना हो गया।
पत्रकारिता की दुनिया के वे हलचल भरे साल थे जब विनोद जी कानपुर में थे। बेहमई का हत्‍याकांड तभी हुआ, छविराम की मौत तभी हुई और सबसे बड़ा हादसा हिंदू-सिख दंगा तभी हुआ। इंदिरा जी की मौत और लोगों का पागलपन जो एक दिन के भीतर अपराधियों के हाथ का हथियार बन गया। मैं सबसे पहले दिल्‍ली में दंगे की शुरुआत के दूसरे दिन कानपुर आया, जो-जो देखा उससे दहल गया। विनोद जी के पास गया। विनोद जी बिफरे बैठे थे। सरकार की अक्षमता, अधिकारियों की संलिप्‍तता और और अधिकारियों की शहर पर चली हुकूमत ने उन्‍हें अंदर ही अंदर रुला दिया था। जो उनके अखबार में नहीं छप सका, वह तो बताया ही साथ ही वह भी बताया जो वे छपाना चाहते थे। उन्‍होंने कहा, देश में तुम्‍हीं लिख सकते हो, शहर का अखबार होने की सीमायें हैं। मेरी उन रिपोर्टों ने लोगों को हिला कर रख दिया, पर वे उतनी प्रभावशाली हो ही नहीं पातीं यदि विनोद जी से मेरा संपर्क नहीं होता।
विनोद जी को स्‍वयं नहीं पता था कि वह खुद कितने बड़े संस्‍थान हैं। कानपुर में रहते हुए उन्‍होंने जितने पत्रकार बनाये और जितनों को उन्‍होंने निखारा, वह अपने आप में उदाहरण है। विनोद जी का आज तक सही मूल्‍यांकन हुआ ही नहीं। आजके मालिक शार्दूल विक्रम गुप्‍त उनके भाई जैसे मित्र थे, कुछ ऐसा रिश्ता जिसे भाई और मित्र के बीच में तलाशा जा सकता है। विनोद जी की लोकप्रियता से जलने वालों ने शार्दूल जी व विनोद जी में दूरियां बढ़वानी शुरू कीं। विनोद जी को दैनिक जागरण के नरेंद्र मोहन जी ने अपने यहां आने का आमंत्रण दिया। एक दिन विनोद जी ने इसका जिक्र किया तो मैने कहा कि नरेंद्र मोहन जी की तस्‍वीर बिल्‍कुल अलग है, कैसे काम करेंगे? विनोद जी ने कहा कि उन्‍होंने लखनऊ संस्‍करण पूरा हाथ में देने का वायदा किया है। नरेंद्र मोहन जी ने अपना वायदा निभाया, लेकिन विनम्रता से इतना अवश्‍य कहना चाहूंगा कि जागरण समूह ने भी विनोद जी का पूरा फायदा नहीं उठाया। विनोद शुक्‍ल हिंदी पत्रकारिता के नेपोलियन थे। उनमे नेतृत्‍व की क्षमता थी, वे लोगों में उत्‍साह भर सकते थे, दिशा दे सकते थे। विनोद जी में खबरें सूंघने की अदभुत क्षमता थी। विनोद जी को लक्ष्‍य दे दीजिये, वे उसे प्राप्‍त कर लेते थे पर यदि उन्‍हें लक्ष्‍य कैसे प्राप्‍त करना है, समय-समय पर बताया तो वह अनमने हो जाते थे। विनोद जी के आलस्‍य ने हम सब पर अत्‍याचार किया। उन्‍होंने लिखा नहीं। विनोद जी को पत्रकारिता में बदलाव ने परेशान तो किया ही अगर वे इसे ही सीरियलाइज कर देते तो हिंदी के वे सब, जो विनोद जी का अनुभव जानना चाहते हैं, उन्‍हें धन्‍यवाद देते।


विनोद जी, जब मैं संतोष भारतीय बनने की प्रक्रिया में था, आपकी सहायता, आपकी दी गई सीख, आपके संकेत, आपकी सहायता, आपके प्‍यार, आपके स्‍नेह और भ्रातृत्‍व को कभी भुला नहीं पाऊंगा। वह ऐसा ऋण है जिससे इस जीवन में तो मैं उऋण हो ही नहीं सकता। (लेखक श्री संतोष भारतीय नामचीन पत्रकार हैं। हिंदी पत्रकारिता में चौथी दुनियांउनका सबसे बड़ा कारनामा है। ) 

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

लोक की टेर : ‘अंधरे के हाथ बटेर’

जगदीश पीयूष लोक में जन्‍में, उसी के बीच रहकर उन्‍होंने जीवन के परमाणु संघटित किये। इसीलिए उन्‍हें लोक मन की अच्‍छी पहचान है। लोक भाषा में लोक संस्‍कृति का निर्वाह करते हुए लोकानुभूति, लोक प्रकृति, लोकाराधना, लोक वेदनस, लोक विसंगतियों, लोक मान्‍यताओं और लोक विश्‍वासों का लोक प्रचलित मुहावरों तथा लोकोक्तियों का भरपूर प्रयोग करते हुए कवि पीयूष ने अपनी अवधी कविताओं की रचना की है। लोक के कवि होकर भी वह लोक की पिटी-पिटाई लीक पर नहीं चले, बल्कि उनकी अवधी कविताएं, नये तेवर, नये मूल्‍य और नये प्रतिमानों को लेकर अपने पैरों पर खड़ी हुई हैं। इस प्रकार परम्‍परा की वैसाखी से जन कवि पीयूष की कविताऐ कोसों दूर हैं।

 पीयूष जी जीवनानुभवों के कवि हैं। जिस किसी रचनाकार को लोक-धड़कन की पहचान होती है वह निश्‍चय ही लोकप्रिय होता है। जोक की शुभ भावनायें और आशीर्वाद उसके साथ होते हैं। इन्‍हीं मुंह भर आशीषों का प्रत्‍यक्ष प्रभाव है कि एक ओर पीयूष देश-विदेश के उतार-चढ़ावों, परिवर्तनों, प्रभावों और अभावों के कारण परिणाम एवं निराकरण तक की समझ रखते हैं तो दूसरी ओर पौराणिक युग से विशेष लगाव रखते हुए भी वे अत्‍याधुनिकता को भली-भांति समझते हुए उससे बराबर बचते हैं। इन्‍हीं व्‍यापक अनुभवों के प्रभाव स्‍वरूप पीयूष की कविता अमृत की भांति पाठक के अन्‍तर्मन में रसमय स्‍थान बनाने में सफल हुई है।
’अंधरे के हाथ बटेर’ लोक प्रचलित मुहावरा है, जिसे पीयूष जी ने अवधी कविताओं के संग्रह का नाम देकर यह स्‍पष्‍ट किया है कि उनका निरन्‍तर लोक से जुड़ा रहता है। उनके लिए लोक से बढ़कर कुछ नहीं है। अपनी लोकानुभूति की अभिव्‍यक्ति हेतु कवि ने रूपकों या प्रतीकों का ही नहीं अपितु मिथकों का भी आधार लिया है। इस प्रकार कवि पीयूष ने अपने युगीन संदर्भों से संवलित भावों को अत्‍यंत कौशल से सुनियोजित किया है।
साधनहीन व्‍यक्ति के लिए बस ‘राम’ का ही सहारा होता है। प्रचलित काव्‍योक्ति है-‘निर्बल के बलराम’। भारतीय गांवों में जहां गरीबी आल भी अपने पांव पसारे है। भरपेट भोजन के अभाव में लोग तरह-तरह के रोगों के शिकार हो रहे हैं, फिर भी वे राम भरोसे हैं। उनकी आस्‍था और विश्‍वास में आज भी रंच भर अन्‍तर नहीं आया है। तभी तो ग्रामीण जनजीवन आज भी चातक की भांति उन्‍हीं ‘रामजी’ की टेर लगा रहा है-
केव के दाबे है गरीबी, धरे गठिया औ टी.बी.
परा खटिया पै करा थें बड़ाई राम जी ।
बाटे सगरी दरद कै दवाई रात जी ।।  
कतौ हंसी कतौ आवा थै रोवाई राम जी ।
राम किरपा तोहार, लागा हमरिव गोहार ।
आई दुखिया के काम आना पाई राम जी ।
बाटे सगरौ दरद कै दवाई राम जी ।।
’लीक’ से हटकर चलना सबके बस की बात नहीं होती-लीक छोड़कर वलना असाधारणता का परिचायक होता है। ऐसे लोग अपने मार्ग का स्‍वयं निर्धारण करते हैं, फिर उनके द्वारा निर्मित मार्ग पर अन्‍य जन चलते हैं। ऐसा करने वालों के सम्‍बन्‍ध में प्रचलित काव्‍योक्ति है-
लीक-लीक गाड़ी चलै, लीकहिं चलै कपूत ।
लीक छांडि़ तीनहिं चलैं, सायर सिंह सपूत ।।
पीयूष जी मां भारती के ऐसे सपूत हैं जो अपनी कविता के अनुभूति पक्ष को ही नहीं अपितु अभिव्‍यक्ति पक्ष को भी नए बिम्‍बों, प्रतीकों, मिथकों और रूपकों को पूरे मनोयोग से सजाते हैं। इसीलिए उनके मनोवेग प्रताप जैसी गति, निर्मलता एवं ऊर्जा संवलित होते हैं। वर्तमान समय में लोक संस्‍कृति का जिस तीव्र गति से क्षरण हो रहा है संक्रान्तिकाल में पीयूष जी की अवधी कविताएं हताशा के बीच आशा का अखण्‍ड दीप जलाती हैं। ळाले ही उनका प्रकाश मंद हो, पर प्रकाश तो प्रकाश होता है, और वह भी अखण्‍ड प्रकाश।
 पीयूष जी ‘ताव बाज कवि’ हैं। वास्‍तव में कविता ‘ताव’ में आकर ही लिखी जाती है। ‘ताव’ ठण्‍डा पड़ा नहीं कि फिर चाहे जितना आप प्रयत्‍न करें, कविता नहीं कर पायेंगे। ‘ताव’ ही को हम कवि के अन्‍तर्मन की प्रतिक्रिया कहते हैं, जो लक्षण और तत्‍काल व्‍यक्‍त होती है।  इसके बीच समय का अन्‍तराल कदापि सम्‍भव नहीं होता है। गांव और शहर क्रमश: लोक संस्‍कृति और नगरीय संस्‍कृति के प्रतीक हैं। नगरीय संस्‍कृति विदेशी या पाश्‍चात्‍य संस्‍कृति है, जहां छोटे-बड़े का अन्‍तर और सम्‍मान का विशेष ध्‍यान नहीं रखा जाता। संवेदनशील कवि की आत्‍मा इस विसंगति से कराह उठती है-
लागै हमका सहरवा कै आंच माई जी ।
होइगा नवा कारबार ।
जोतैं बोवैं लम्‍बरदार ।
करै बपवा से पूत तीन पांच माई जी ।
लागै हमका सहरवा कै आंच माई जी ।।
खाई छतिया प हूल ।
गई फंसिया प झूल ।
मारै जियरा दहेजवा पिसाच माई जी ।
लागै हमका सहरवा कै आंच माई जी ।।  
‘अंधरे के होथ बटेर’ की रचनाओं के अवगाहन से भारतीय गांवों की दीन दशा, व्‍यथा और कथा की पूरी झलक मिलती है। ग्रामों में आये अप्रत्‍याशित परिवर्तनों से कवि आश्‍चर्यचकित तो है ही साथ ही वह अत्‍यंत खिन्‍न भी है-
गउना बदला हमार ।
अंगना बखरी दुआर ।
भूली मुंशी जी के घरे कै पढ़ाई माई जी ।
बदला रस्‍ता पैंड़ा ताल औ तलाई माई जी ।।
नाहीं कुर्द सिकहर पै बिलाई माई जी ।
बदला रस्‍ता पैंड़ा ताल औ तलाई माई जी ।।
 पीयूष जी वस्‍तुत: जन-जीवन से निरन्‍तर जुड़े रहने वाले कवि हैं। ठेठ देहाती परिवेश और कविता इन्‍हीं दो में उनकी आत्‍मा आज भी रमती है। खड़ी बोली के इस युग में जहां जन भावनाओं के समक्ष अस्तित्‍व का संकट दिन-प्रतिदिन गहराता जा रहा है, जन भाषा अवधी की मशाल को जलाकर जनचेतना जगाने का सराहनीय कार्य वे पिछले तीन दशक से करते आ रहे हैं। इस प्रकार वातावरण-निर्माण के साथ ही रचना-धर्मिता का निर्वाह करते हुए अवधी कविता को युग-सापेक्ष बनाने हेतु वे कृजसंकल्‍प हैं।
 पीयूष लोक जीवन से सदैव सम्‍बद्ध रहे, इसीलिये उनकी रचनाओं में लोकजीवन की छवियां, समस्‍यायें, कुरूपतायेंख्‍ पीड़ायें, अवसाद, और विशाद ही नहीं हर्षोल्‍लास भी व्‍यक्‍त हुआ है। एक बानगी-
नाहीं दाना पानी बाय ।
नाहीं छप्‍पर छानी बाय ।
कहां बइठी काव खाई कहां सोई माई जी ।
कहां लरिका खेलाई हंसी रोई माई जी ।।
धोती होइगै तार-तार ।
घरे आवै न बिलार । 
नाहीं सूख भात, नाहीं रोटी पोई माई जी ।
जइसे कोढि़या मा खाज ।
पी कै आवै दारूबाज ।
मारै लठिया से के का गोहराई माई जी ।
टूटी जिनगी कै आस,
नाहीं पाई सल्‍फास ।
कौने तरवा इनारा मा समाई माई जी ।
कहां लरिका खेलाई हंसी रोई माई जी ।।
गर्मी गरीबों के लिए भली है । इसीलिए उनके सारे मांगलिक कार्य और मेले-ठेले अधिकांशत: इसी ऋतु में होते हैं। होली इन आयोजना का सिंहद्वार है। अबीर, गुलाल और गुझिया का यह पर्व अपनी रसिकता के लिए भी जाना जाता है। ‘फागुन मा दादा देवर लागैं’ इसी की ओर संकेत करती हुई लोकोक्ति है। पीयूष ने अपनी कविता-‘कमरे से ग्राम्‍य समाज’ कितने ही जीवन्‍त एवं गत्‍यात्‍मक चित्र खींचे हैं, जिनकी मनोहारी छवियों की झलक देखते ही बनती है। पीयूष जी वस्‍तुत: असहायों और शोषितों के प्रति संवेदना एवं सामाजिक अनीतियों के प्रति पाठक के मन में विद्रोह की भावना जगाना चाहते हैं। वे सामाजिक शोषण और उत्‍पीड़न के विरोधी हैं। अवधी कविता की समृद्धि में पीयूष जी द्वारा किये जा रहे सभी रचनात्‍मक कार्य स्‍वागत योग्‍य हैं। -
डा. पाण्‍डेय रामेन्‍द्र
   

रविवार, 25 अक्तूबर 2009

लखनऊ की सरजमी से हुआ था उदघोष- ‘आजादी हमारा पैदाइशी हक है’

लोकमान्‍य बाल गंगाधर तिलक के उदघोष ‘स्‍वराज हमारा जन्‍मसिद्ध अधिकार है’ की प्रेरणा आज से 133 वर्ष पूर्व मुंशी नवलकिशोर द्वारा लखनऊ की सरजमीं से की गई घोषणा ‘आजादी हमारा पैदाइशी हक है’ से उपजी थी। मुंशी नवल किशोर ने उत्‍तर भारत के पहले स्‍वदेशी भाषाई समाचार पत्र ‘अवध अखबार’ के 11 अप्रैल 1875 के संस्‍करण के अपने संपादकीय अग्रलेख में यह घोषणा की थी।

कुछ एक सरकारी प्रकाशनों को छोड़कर आज पुस्‍तक प्रकाशन जगत में लखनऊ का कोई वजूद नहीं रह गया है। हालातों को देखकर भरोसा नहीं होता कि मुंशी नवल किशोर सरीखे महापुरुषों ने लखनऊ की सरजमी को अपनी कर्मभूमि बना कर ऐसी पुस्‍तकों का प्रकाशन किया होगा, जिनसे दुनिया भर में लखनऊ का नाम रोशन हो गया था। मुंशी नवल किशोर द्वारा लखनऊ को दी गई यह गरिमा आज भी मध्‍य एशिया में यथावत कायम है। विभिन्‍न पुस्‍तकालयों की रैकों में आज भी मुंशी नवल किशोर द्वारा प्रकाशित पुस्‍तकें सर्वोत्‍कृष्‍ट साहित्‍य के रूप में पाठकों के अंदर ज्ञान की ज्‍योति जला रही हैं।
नवल किशोर प्रेस अपनी स्‍थापना (23.11 .1858). से लेकर 
सन 1950 तक भारत में लगातार अग्रणी रहा। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की विज्ञानवार्ता ‘विचित्र चित्रण’, ‘गुरुलोसनोवर’ आदि प्रस्‍तकें यहीं प्रकाशित हुईं। कालीदास के ’ऋतु संहार’ के उर्दू अनुवाद ‘अकसीर सुखन’ पियारेलाल शाकिर प्रकाशित होने पर मुंशी प्रेमचंद्र ने ‘माधुरी’ में इसका 27 पृष्‍ठों का विज्ञापन दिया था।
पण्डित बृजनारायण चकबस्‍त व अब्‍दुल हलीम शरर की नोक-झोंक ‘मार्का चकबस्‍त शरर’ काफी दिनों तक ‘अवध अखबार’ में छपती रही। इतना ही नहीं रतननाथ सरशार के ‘किसाने आजाद’, ‘सैर कोहसार’, ‘जामे सरशार’, ‘खुदाई फौजदार’ जैसी महत्‍वपूर्ण कृतियां यहीं छपीं। इसके अलावा सूफी फकीर हजरत मोइनुदीन चिस्ती, हजरत निजामुदीन की लिखी पुस्‍तकों के प्रकाशन का श्री गणेश भी यहीं हुआ। हाजी वारिस अली शाह का जीवन चरित्र पहली बार यहीं से छपा। उन पर जो पुस्‍तकें बाद में छपीं, इसी किताब की मदद से छपीं। उर्दू,फारसी, हिंदी, संस्‍कृत, अरबी में आपसी तकरीरी अनुवाद करने वाले मुंशी जी पहले आदमी थे। कानून में फतवा आलगीरी, लब्‍ध प्रतिष्ठित ग्रंथ पदमावत, मेघदूत, गीत गोविंद, श्रीमद भागवत गीता भी सर्वप्रथम यहीं से प्रकाशित हुए। इस प्रेस ने 124 धर्मशास्‍त्रों का उर्दू में और रामायण गुरुमुखी में छापी।
मैकेंजी वेल्‍स का समग्र इतिहास 1888 में हिंदी व गुरुमुखी में यहां से प्रकाशित हुआ। ‘तारीख नादिरुल असर’ में मुंशी नवल किशोर ने लखनऊ की कहानी खुद कह डाली। सऩ 1886 में यहीं ‘चाणक्‍य नीति शास्‍त्र.’ का उर्दू तर्जुमा ‘लाल चंद्रिका’ छपा। अमेठी नरेश माधव सिंह के मूल व अनुवाद ‘शंगार बत्‍तीसी’, ‘राग प्रकाश’, ‘मीरा स्‍वयंवर’, ‘श्री रघुनाथा चरित’, ‘भक्ति रत्‍नाकर’ आदि तमाम किताबों को प्रकाशित कर इस प्रेस ने हिंदू, सिख व मुसलमानों के मन में अपना अलग ही स्‍थान बना लिया था। ‘कुरान पाक’ को जिस आदर से यहां शाया करा जाता था, सभी मुसलमान भाई जानते थे।
बहरहाल मुंशी नवल किशोर ऐसे साहित्‍य मनीषी थे जिन्‍होंने हिंदी, उर्दू, संस्कत, फारसी, अरबी, गुरुमुखी, गुजराती, पशतो, बंगाली आदि भाषाओं में तकरीबन पांच हजार संदर्भ ग्रंथों के अलावा उर्दू में ‘अवध अखबार’ व अंग्रेजी में ‘अवध रिव्‍यू‘ समाचार पत्रों का प्रकाशन किया। बाद में इसी प्रेस ने ‘माधुरी’ जैसी पत्रिका, प्रेमचंद जैसे साहित्‍यकार, पत्रकार समाज को दिए। उनके सम्‍मान में भारत सरकार ने महज एक डाक टिकट जारी करके अपने कर्तव्‍य की इतिश्री कर ली। दूसरी ओर 1858 से लेकर 1950 तक 92 वर्ष्‍ तक लगातार छपने व सांस्‍कृतिक राजनीतिक चेतना जगाने वाले ‘अवध अखबार’ के लिए तो आज तक कुछ किया ही नहीं गया, जबकि अखबार का जन्‍म ही देश को आजादी दिलाने के लिए हुआ था। यह अंग्रेजी हूकुमत शुरू होते ही मुखरित हुआ और अ्रंग्रेजों के देश छोड1 कर जाते ही मौन हो गया।

सऩ 1896 में छपे ‘कथा सरित सागर’ नामक ग्रंथ के हिंदी अनुवाद की भूमिका में भी अनुवादाकें ने लिखा है, ‘हिंदी भाषा के परम हितैषी भार्गव वशोवतंम मुंशी नवल किशोर (सीआईई) ने विद्वानों के मुख से इस कथा सरित सागर नामक ग्रंथ रत्‍न की प्रशंसा तथा उपदेश भरी अत्‍यंत मनोहर कथाओं को सुन कर अपनी मातृ भाषा हिंदी का गौरव बढाने के लिए हम लोगों को यथोचित धन दे कर इसका अनुवाद कराया।
मूर्धन्‍य साहित्‍यकार अमृतलाल नागर बताते हैं कि ‘गालिब, रतन नाथ सरकार और प्रेमचंद अकेले  इन तीन नामों का लगाव ही मुंशी नवल किशोर और उनके उत्‍तराधिकारियों के गौरव में चार चांद लगाने के लिए काफी हैं। और जहां तक मुंशीजी की प्रेस की ख्‍याति का सवाल है, अंदाजा तो इस बात से ही लगाया जा सकता है कि आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर ने अंग्रेजों की कैद में देशबंद होने के बाद रंगून से अपने काव्‍य प्रकाशित होने यहां भेजे। आतिश, मोमिन, मीर और गालिब जैसे महाकवियों के दीवान भी यहीं प्रकाशित हुए। नागरजी आगे कहते हैं कि अवध अखबार में सरशार से उनका सुप्रसिद़ध उपन्‍यास ‘किसाने आजाद’ लिखा लेना मुंशी नवल किशोर और उनके अत्‍तराधिकारी मुंशी प्रयाग नाराणजी का ही काम था। सरशार साहब के दरवाजे पर मुंशीजी की घोडागाडी खडी रहती थी। उन्‍हें एक कमरे में बंद करा दिया जाता था, तब वे कातिबों को अपना उपन्‍यास लिखाते थे।
प्रेस की चर्चा करते हुए नागरजी कहते हैं कि उस समय तकरीबन 200 लोग यहां काम करते थे और दुनिया की जानी मानी प्रेसों में उसका दूसरा नंबर था। अखबार की लोकप्रियता का यह आलम था कि इसकी बिक्री दिन दूनी रात चौगुनी होने लगी। एक समय तो यह आ गया कि अखबार के लिए कागज की कमी पड1ने लगी लेकिन मुंशीजी का अखबार के प्रति समर्पण ही था कि उन्‍होंने इस कमी को अपनी राह का रोडा नहीं बनने दिया और तुरंत ही ‘अपर इंडिया पेपर मिल’ के नाम से एक पेपर मिल खोल डाली। इस प्रकार मुंशीजी उस दौर के पहले प्रकाशक बन गए, जिन्‍होंने अखबार के लिए अपनी निजी पेपर मिल खोल दी। 

हिन्दू -मुस्लिम एकता के प्रतीक 
  
मुंशी नवल किशोर भार्गव उस जमाने में भी हिंदू मुस्लिम एकता के प्रतीक थे। उन्‍होंने इन दोनों कौमों को एक दूसरे के नजदीक लाने में जितना काम किया शायद ही किसी पत्रकार या साहित्‍यकार ने किया हो। ख्‍वाजा अहमद अब्‍बास ने मुंशी नवल किशोर की 75वीं पुण्‍यतिथि के मौके पर आखिरी कालम में जो लेख लिखा उसका हेहिंग ‘हिंदू मौलवी और मुसलमान पंडित मुंशी नवल किशोर भार्गव’ था।
उन्‍होंने उस लेख में जिक्र किया कि पंडित होने के बावजूद मुंशीजी की दाढी एक मौलवी का सा भ्रम पैदा करती थी। अपने लेख में अब्‍बास साहब ने एक किस्‍सा बयान किया था कि कैसे एक अंग्रेज मुंशीजी को एक मुसलमान प्रकाशक व पत्रकार समझ कर उनकी तारीफ इसलिए कर गया कि उन्‍होंने कुरान के साथ साथ हिंदू व सिख धर्मग्रंथ भी छापे और उसका तर्जुमा भी छापा।


‘स्‍वराज हमारा जन्‍म सिंद़ध अधिकार है’ लोकमान्‍य बाल गंगाधर तिलक के सऩ 1916 के इस क्रांतिकारी उदघोष से 40 साल पहले लखनऊ की सरजमीं से ठीक यही हुंकार उठी थी, भारत के पहले स्‍वदेशी दैनिक ‘अवध अखबार’ से। अवध अखबार के 11 अप्रैल, 1875 के संपादकीय अग्रलेख में घोष किया गया ‘आजादी हमारा पैदाइशी हक है।‘ संपादक थे अपने जमाने के भारत के सर्वाधिक सम्‍मानित व्‍यक्ति मुंशी नवल किशोर भार्गव। वही मुंशी नवल किशोर जो गालिब के दोस्‍त थे, बहादुर शाह जफर की रचनाओं के अकेले प्रकशक  और तिलक महाराज के आदर्श व प्रेरणातत्‍व। तिलक महाराज ने अपने अखबारों ‘मराण’ और ‘केसरी’ के  संपादन और प्रबंधन में मुंशीजी को मिसाल के तौर पर लिया और अखबार के प्रसार व जनता से जुडाव की दृष्टि से आदर्श के तौर पर। तिलक महाराज, गालिब, रतन नााि सरशार और बहादुर शाह जफर ही नहीं, शाहे इरान, बादशाहे अफगानिस्‍तान के तत्‍का‍लीय अंग्रेज वायसराय सहित तमाम साहित्यिक राजनीतिक हिस्‍तयां मुंशीजी नवल किशोर से उनके ‘अवध अखबार’ और ‘नवल किशोर प्रेस’ से किसी न किसी तरह जुडे ही रहे। उर्दू में छपने वाला ‘अवध अखबार’ भारत का किसी भी देशी भाषा का पहला दैनिक अखबार था जो सफलतापूर्वक पूरे 92 वर्ष तक प्रकशित होता रहा। 26 नवंबर, 1858 को इसका पहला अंक प्रकाशित हुआ। शीघ्र ही भारत के सभी बडे शहरों तथा लंदन में इसके संवाददाता नियुक्‍त हो गए। मुंशी नवल किशेर की अपनी सूझबूझ व राजनीतिक सामाजिक पकड का ही नतीजा था कि प्रकाशन आरंभ होने के कुल 10 वर्ष के अंदर ‘अवध अखबार’ की 2 हजार से भी ज्‍यादा प्रतियां बिकने लगीं। मुंशीजी ने यह अखबार उर्दू में निकाला क्‍योंकि उर्दू ही उस समय मुगल व अवध दोनों ही सल्‍तनतों की राजभाषा थी। साथ ही पढे लिखे आम लोगो की भाषा थी। ‘पढे फारसी बेचे तेल, यह देखो कुदरत का खेल’ के उस जमाने में अतिप्रतिष्ठित फारसी भाषा को उन्‍होंने माध्‍यम नहीं बनाया, न ही अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा को। यही कारण रहा कि दिल्‍ली से ले कर पूना, हैदराबाद तक इस अखबार की बराबर की बिक्री होती थी। इसके पाठकों में मिर्जा गालिब, मोमिन, दाग और बहादुर शाह जफर जैसे लोग थे, जिनके नाम अखबार के मासिक चंदे की रसीदें अभी भी रखी हैं। हां, मुंशीजी ने उस समय तेजी से फैलती ‘अंग्रेजी’ भाषा के प्रभाव को भी बखूबी समझा और ‘अवध रिव्‍यू’ नामक अंग्रेजी अखबार भी निकालना प्रारंभ किया।

(‘अवध अखबार’ उस जमाने में पूरे उत्‍तर भारत का सर्वाधिक बिक्री वाला दैनिक था व देशी भाषा का तो पूरे भारत में अग्रणी दैनिक। मुंशी नवल किशोर और उनके उत्‍तराधिकारी प्राग नाराणजी के जमाने में इसकी खबरों और संपादकीय की घर घर में चर्चा होती थी। ‘आजादी हमारा पैदायशी हक है’ उस जमाने में उत्‍तर भारत खासकर युक्‍त प्रांत का चर्चित नारा बन गया था। ‘मारण’ और ‘केसरी’ अखबरों के संपादक व भारत ही नहीं दुनिया भर की राजनीति व अखबारों पर गहरी निगाह व उनमें गहरी रुचि रखने वाले तिलक महाराज पर मुंशी नवल किशोर और अवध अखबार का गहरा असर था। तिलक महराज का उनके जमाने में मुंशी नवल किशोर के उत्‍तराधिकारी प्राग नारायण और विष्‍ण्‍धु नारायण से भी बराबर संपर्क बना रहा। 1916 के अपने देशव्‍यापी दौरे व दिसंबर में लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन के समय वे भार्गव परिवार की राजनीतिक पकड व सक्रियता और ‘अवध अखबार’ एवं ‘अवध रिव्‍यू’ से रूबरू हुए। उस समय 1916 में वह (तिलक महराज) दौरा कर करके देश की सोई हुई शक्ति को जगा रहे थे। उनके व्‍याखयानों का क्‍या पूछना ? व्‍यर्थ का शब्‍दाडंबर न होते हुए भी व्‍याख्‍यान प्रभावशाली तथा जोशीले होते थे। उनके मुंह से निकला हुआ यह वाक्‍य ‘स्‍वराज हमारा जन्‍म सिद्ध अधिकार है और मैं उसे लेकर रहूंगा’ तो भारत के राष्‍ट्रीय इतिहास में अमर हो गया है’। (श्री राम नाथ सुमन हमारे राष्‍ट्र निर्माता पृष्‍ठ-51)
और इस तरह तिलक महराज जैसी राजनीतिक हस्‍ती मुंशी नवल किशोर जैसी साहित्‍यिक व रचनात्‍मक हस्‍ती के योग से आजादी के पैदाइशी हक की हुंकार उस समय के राजनीतिक मंच पर छाए स्‍वराज के रंग में ढलकर ‘स्‍वराज हमारा जन्‍मसिद्ध अधिकार है’ के अमर घोष में बदल गई। एक पत्रकार, विचारक और जननायक के मणिकांचन संयोग से आजादी के दीवानों की आत्‍मा की आवाज माने-जाने वाला यह नारा पूरे भारत में गूंज उठा। वह नारा जो मुंशी नवल किशोर की वैचारिक आम्‍मा को तिलक की वाणी रूपी शरीर मिल जाने से कालातीत बन गया।
मुंशीजी की मौत पर ब्रिटिश सरकार ने अपने कार्यालय यहां तक कि रेलों को भी दो मिनट के लिए स्‍थगित कर दिया गया था। बताते हैं कि मुंशी के देहांत होने के बाद जब उनकी शव यात्रा प्रारंभ हुई तो हजारों मुसलमानों ने उसे मस्जिद के सामने रोक लिया और दृढ़तापूर्वक कहा ‘हम बगैर नमाजेजनाजा पढ़े मुंशी नवल किशोर की शवयात्रा न बढ़ने देंगे।‘ इस तरह मुंशी नवल किशोर पहले हिंदू ब्राह़मण थे जिनकी मौत पर हठपूर्वक नमाजे जनाजा पढ़ कर उनके प्रति मुस्लिमों ने अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।
नवल किशोर प्रेस से ही सऩ 1922 में ‘माधुरी’ जैसी साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन मुंशीजी के पौत्र बिशन नारायण ने किया। इसके संपादकों में मुंशी प्रेमचंद व रूपनारायण पांडेय जैसे धुरंधर पत्रकार व साहित्‍यकार प्रमुख रूप से जाने जाते हैं। माधुरी के प्रकाशन पर सरस्‍वती के संपादक पं: देवीदत्‍त शुक्‍ल ने लिखा था कि ‘माधुरी’ के निकलते ही हिंदी का प्रेस जगत चकित हो गया। इसके पहले कोई जानता ीाी नहीं था कि हिंदी में इतनी बड़ी पत्रिका निकाली जा सकती है। नि:संदेह माधुरी ने हिंदी के मासिक साहित्‍य में क्रांति पैदा कर दी। माधुरी के प्रथम अंक (30 जुलाई, 1922) में ही संपादकों ने घोषित कर दिखाया कि पत्रिका का उद़देश्‍य है ‘हिंदी की लेखन शैली में आवश्‍यक सुधार की चेष्‍टा करना, जनता के मनोरंजन के साथ ही हिंदी और देश की सेवा करना।‘ इस पत्रिका से कोई लाभ उठाने की संचालकों की बिल्‍कुल इच्‍छा नहीं है। 8 फरवरी, 1927 को मुंशी प्रेमचंद को मुंशी बिशन नारायण ने माधुरी की एडीटरी के लिए बुलाया था, वेतन था 200/-प्रति माह। बिशन नारायण के निधन पर प्रेमचंद ने माधुरी में लिखा ‘मुंशी नवल किशोर के खानदान का’ यह सूरज ऐन उस वक्‍त पर डूबा जब वह अपने पूरे उठान पर था। (31 वर्ष की अल्‍पायु)। माधुरी से जुड़ने मिश्रा बंधु, बद्रीनाथ भटट, गोविंद बल्‍लभ पंत, सुमित्रानंदन पंत, निराला, मुकुट बिहारी वर्मा, इलाचंद्र जोशी, भगवती प्रसाद वाजपेयी, चर्तुभुज शास्‍त्री, बांके बिहारी भटनागर, अमृत लाल नागर लखनऊ आए थे और यहां ‘सुधा’ से भी जुड़े रहे।इनके अलावा भगवती चरण वर्मा, वृंदावन लाल वर्मा, मैथिली शरण गुप्‍त, सियाराम शरण, रायकृष्‍ण दास, जगन्‍नाथ दास रत्‍नाकर, लखनऊ आते रहते थे व माधुरी से इनका नजदीकी रिश्‍ता बरकरार रहा।
कबीर, अनीस और मीर का ‘मर्सिया’ साहित्‍य इसी प्रेस की देन है जो सुनने वालों को रुला देता है।
नवल किशोर प्रेस द्वारा 1928 में प्रकाशित पं: महावीर प्रसाद द्विवेदी की पुस्‍तक वैचित्र चित्रण का संपादकीय वक्‍तव्‍य मुंशी प्रेमचंद ने कुछ इस तरह लिखा-‘भारत वर्ष में नवल किेशोर प्रेस ही एक ऐसी संस्‍था है जिसने पहले पहल हिंदी में पुस्‍तक प्रकाशन कार्य शुरू किया और अब तक पूरे उत्‍साह के साथ करता जा रहा है। पिछले 75 वर्षों से जिस उत्‍साह के साथ इस प्रेस ने प्रकाशन का कार्य किया है वह किसी भी भारतवासी से छिपा नहीं है। यहां की प्रकाशित पुस्‍तकों का गांव-गांव और घर-घर में प्रचार है। यही इसके उत्‍कर्ष का ज्‍वलंत प्रमाण है। जब तक जितनी बड़ी-बड़ी हिंदी और संस्‍कृत की पुस्‍तकें इस प्रेस से प्रकाशित हुई हैं उतनी अन्‍य किसी भी प्रेस से नहीं हुई हैं।
’अब नवल किशोर प्रेस के उदार विद्वान स्‍वामी मुंशी बिशन नारायणजी भार्गव ने साहित्यिक क्षेत्र को और भी विस्‍तृत करने का विचार किया है और इसी उद़देश्‍य से उन्‍होंने माधुरी सी सर्वश्रेष्‍ठ मासिक पत्रिका को जन्‍म दिया जो इस समय हिंदी भाषा साहित्‍य की यथा साध्‍य सेवा कर रही है। आपकी चिरकाल से इच्‍छा थी कि हिंदी भाषा में एक ऐसी ग्रंथमाला निकाली जाए जिससे होम यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी के ढंग के समान आकार और विविध विषय में उपयोगी, ग्रंथ प्रकाशित किए जाएं। अब उस पर विचार को आपने कार्यरूप में परिणित करने का संकल्‍प किया है और साहित्‍य सुमन माला के नाम से एक ग्रंथमाला निकाल रहे हैं।’इस माला में एक आकार-प्रकार की प्राय: मौलिक पुस्‍तकें ही निकाली जाएंगी, पृष्‍ठ संख्‍या प्रत्‍येक पुस्‍तक की दो और तीन सौ पृष्‍ठों की रखी जाएगी जिससे जनता में इस माला की पुस्‍तकों का प्रचार बढ़े और लोग इसकी प्रत्‍येक पुस्‍तक को खरीद कर पढ़ सकें। -राजू मिश्र/उपेंद्र पांडेय



‘अवध अखबार निकले तो देश के हालात सुधरेंगे’

-डॉ: रणजीत भार्गव

मुंशी नवल किशोर प्रेस के वर्तमान में उत्‍तराधिकारी राजा रामकुमार प्रेस के मालिक डा: रंजीत भार्गव की हार्दिक इच्‍छा है कि ‘अवध अखबार’ दोबारा निकले। मुंशी नवल किशोर के प्रपौत्र राजा राम कुमार भार्गव व पद़म श्री रानी लीला भार्गव के पुत्र डा: भार्गव राजनीति शास्‍त्र में पी:एच:डी: हैं। भारत जर्मन संबंधों, पर्यावरण और पर्वतारोहण के विशेषज्ञ माने जाते हैं वह। पश्चिम जर्मनी के ‘आर्डर आफ मेरिट सम्‍मान’ से विभूषित डा: भार्गव ने सात वर्ष तक एलयू में अध्‍यापन के बाद 1979 में त्‍यागपत्र दे दिया और सामाजिक, सांस्‍कृतिक क्षेत्र में पूरी तरह व्‍यस्‍त हो गए। उनका परिवार नेहरू परिवार से घनिष्‍ठ रूप से जुड़ा है। डा: भार्गव आजकल सामाजिक व पर्यावरण से संबंधित सरगर्मियों में व्‍यस्‍त हैं। वह विश्‍व प्रकृति निधि के उत्‍तर प्रदेश के अध्‍यक्ष और भारतीय सांस्‍कृतिक निधि के प्रदेशीय अध्‍यक्ष और भारतीय सांस्‍कृतिक निधि के प्रदेशीय सह-संयोजक हैं। अवध अखबार के पुन: प्रकाशन की उनकी कोशिशें के बारे में बातचीत के कुछ अंश-

सरकार ने क्‍या सहयोग दिया मुंशीजी की यादगार बनाए रखने में?

-मुंशी नवल किशोर की स्‍मृति को अक्षुण्‍ण बनाएस रखने की राय में हमें सरकार का सहयोग पूरी तरह से न के बराबर मिला है। 1970 में सिर्फ एक डाक टिकट निकाला था, वह भी डा: जाकिर हुसैन के विशेष प्रयासों के नतीजन। इसकी वजह है राजनीति, क्‍योंकि आज के जमाने में हर चीज राजीतिक पैमाने पर कसी जाती है। 

‘अवध अखबार’ के पुनर्प्रकाशन की क्‍या योजना है?

-मौलाना अबुल कलाम आजाद जब देश के शिक्षा मंत्री थे तब 1956 में उन्‍होंने ‘अवध अखबार’ के पुनर्प्रकाशन का प्रस्‍ताव रखा था मगर हमारे चाचा तेज कुमार भार्गव ने उसे ठुकरा दिया था। उगर उर्दू अकादमी इसी नाम से निकालना चाहे तो हमें इसमें कोई आपत्ति नहीं है। नवल किशोर प्रेस अपने 90 वर्ष के जीवन में हमेशा घाटे में ही चला क्‍योंकि अखबार निकालना और पुस्‍तकों का प्रकाशन हमारे पूर्वजों का शैक था। इस दृष्टिकोण से आज हम ‘अवध अखबार’ निकालें, यह संभव नहीं है।

यदि सरकार का सहयोग मिले तो क्‍या आप ‘अवध अखबार’ के पुन: प्रकाशन के बारे में तैयार हो सकते हैं?

-अवश्‍य ।

 मगर तब के जमाने में और आज में बड़ा फर्क है। कैसे प्रस्‍तुत करेंगे आप उतनी बेहतरीन सामग्री, क्‍योंकि उस जमाने जैसे न लिखने वाले हैं और न उसके कद्रदान?

-हम मौजूदा हालातों को देखते हुए पुराने किस्‍सों को एक नए अंदाज में रखेंगे। नए अंदाज को पुराने तरीके से नहीं। रामायण और महाभारत धारावाहिक की लोकप्रियता को देखते हुए हमें भरोसा है कि कामयाब होंगे। इससे देश के मौजूदा माहौल में भी बदलाव आएगा।