पीयूष जी जीवनानुभवों के कवि हैं। जिस किसी रचनाकार को लोक-धड़कन की पहचान होती है वह निश्चय ही लोकप्रिय होता है। जोक की शुभ भावनायें और आशीर्वाद उसके साथ होते हैं। इन्हीं मुंह भर आशीषों का प्रत्यक्ष प्रभाव है कि एक ओर पीयूष देश-विदेश के उतार-चढ़ावों, परिवर्तनों, प्रभावों और अभावों के कारण परिणाम एवं निराकरण तक की समझ रखते हैं तो दूसरी ओर पौराणिक युग से विशेष लगाव रखते हुए भी वे अत्याधुनिकता को भली-भांति समझते हुए उससे बराबर बचते हैं। इन्हीं व्यापक अनुभवों के प्रभाव स्वरूप पीयूष की कविता अमृत की भांति पाठक के अन्तर्मन में रसमय स्थान बनाने में सफल हुई है।
’अंधरे के हाथ बटेर’ लोक प्रचलित मुहावरा है, जिसे पीयूष जी ने अवधी कविताओं के संग्रह का नाम देकर यह स्पष्ट किया है कि उनका निरन्तर लोक से जुड़ा रहता है। उनके लिए लोक से बढ़कर कुछ नहीं है। अपनी लोकानुभूति की अभिव्यक्ति हेतु कवि ने रूपकों या प्रतीकों का ही नहीं अपितु मिथकों का भी आधार लिया है। इस प्रकार कवि पीयूष ने अपने युगीन संदर्भों से संवलित भावों को अत्यंत कौशल से सुनियोजित किया है।
साधनहीन व्यक्ति के लिए बस ‘राम’ का ही सहारा होता है। प्रचलित काव्योक्ति है-‘निर्बल के बलराम’। भारतीय गांवों में जहां गरीबी आल भी अपने पांव पसारे है। भरपेट भोजन के अभाव में लोग तरह-तरह के रोगों के शिकार हो रहे हैं, फिर भी वे राम भरोसे हैं। उनकी आस्था और विश्वास में आज भी रंच भर अन्तर नहीं आया है। तभी तो ग्रामीण जनजीवन आज भी चातक की भांति उन्हीं ‘रामजी’ की टेर लगा रहा है-
केव के दाबे है गरीबी, धरे गठिया औ टी.बी.
परा खटिया पै करा थें बड़ाई राम जी ।
बाटे सगरी दरद कै दवाई रात जी ।।
कतौ हंसी कतौ आवा थै रोवाई राम जी ।
राम किरपा तोहार, लागा हमरिव गोहार ।
आई दुखिया के काम आना पाई राम जी ।
बाटे सगरौ दरद कै दवाई राम जी ।।
’लीक’ से हटकर चलना सबके बस की बात नहीं होती-लीक छोड़कर वलना असाधारणता का परिचायक होता है। ऐसे लोग अपने मार्ग का स्वयं निर्धारण करते हैं, फिर उनके द्वारा निर्मित मार्ग पर अन्य जन चलते हैं। ऐसा करने वालों के सम्बन्ध में प्रचलित काव्योक्ति है-
लीक-लीक गाड़ी चलै, लीकहिं चलै कपूत ।
लीक छांडि़ तीनहिं चलैं, सायर सिंह सपूत ।।
पीयूष जी मां भारती के ऐसे सपूत हैं जो अपनी कविता के अनुभूति पक्ष को ही नहीं अपितु अभिव्यक्ति पक्ष को भी नए बिम्बों, प्रतीकों, मिथकों और रूपकों को पूरे मनोयोग से सजाते हैं। इसीलिए उनके मनोवेग प्रताप जैसी गति, निर्मलता एवं ऊर्जा संवलित होते हैं। वर्तमान समय में लोक संस्कृति का जिस तीव्र गति से क्षरण हो रहा है संक्रान्तिकाल में पीयूष जी की अवधी कविताएं हताशा के बीच आशा का अखण्ड दीप जलाती हैं। ळाले ही उनका प्रकाश मंद हो, पर प्रकाश तो प्रकाश होता है, और वह भी अखण्ड प्रकाश।
पीयूष जी ‘ताव बाज कवि’ हैं। वास्तव में कविता ‘ताव’ में आकर ही लिखी जाती है। ‘ताव’ ठण्डा पड़ा नहीं कि फिर चाहे जितना आप प्रयत्न करें, कविता नहीं कर पायेंगे। ‘ताव’ ही को हम कवि के अन्तर्मन की प्रतिक्रिया कहते हैं, जो लक्षण और तत्काल व्यक्त होती है। इसके बीच समय का अन्तराल कदापि सम्भव नहीं होता है। गांव और शहर क्रमश: लोक संस्कृति और नगरीय संस्कृति के प्रतीक हैं। नगरीय संस्कृति विदेशी या पाश्चात्य संस्कृति है, जहां छोटे-बड़े का अन्तर और सम्मान का विशेष ध्यान नहीं रखा जाता। संवेदनशील कवि की आत्मा इस विसंगति से कराह उठती है-
लागै हमका सहरवा कै आंच माई जी ।
होइगा नवा कारबार ।
जोतैं बोवैं लम्बरदार ।
करै बपवा से पूत तीन पांच माई जी ।
लागै हमका सहरवा कै आंच माई जी ।।
खाई छतिया प हूल ।
गई फंसिया प झूल ।
मारै जियरा दहेजवा पिसाच माई जी ।
लागै हमका सहरवा कै आंच माई जी ।।
‘अंधरे के होथ बटेर’ की रचनाओं के अवगाहन से भारतीय गांवों की दीन दशा, व्यथा और कथा की पूरी झलक मिलती है। ग्रामों में आये अप्रत्याशित परिवर्तनों से कवि आश्चर्यचकित तो है ही साथ ही वह अत्यंत खिन्न भी है-
गउना बदला हमार ।
अंगना बखरी दुआर ।
भूली मुंशी जी के घरे कै पढ़ाई माई जी ।
बदला रस्ता पैंड़ा ताल औ तलाई माई जी ।।
नाहीं कुर्द सिकहर पै बिलाई माई जी ।
बदला रस्ता पैंड़ा ताल औ तलाई माई जी ।।
पीयूष जी वस्तुत: जन-जीवन से निरन्तर जुड़े रहने वाले कवि हैं। ठेठ देहाती परिवेश और कविता इन्हीं दो में उनकी आत्मा आज भी रमती है। खड़ी बोली के इस युग में जहां जन भावनाओं के समक्ष अस्तित्व का संकट दिन-प्रतिदिन गहराता जा रहा है, जन भाषा अवधी की मशाल को जलाकर जनचेतना जगाने का सराहनीय कार्य वे पिछले तीन दशक से करते आ रहे हैं। इस प्रकार वातावरण-निर्माण के साथ ही रचना-धर्मिता का निर्वाह करते हुए अवधी कविता को युग-सापेक्ष बनाने हेतु वे कृजसंकल्प हैं।
पीयूष लोक जीवन से सदैव सम्बद्ध रहे, इसीलिये उनकी रचनाओं में लोकजीवन की छवियां, समस्यायें, कुरूपतायेंख् पीड़ायें, अवसाद, और विशाद ही नहीं हर्षोल्लास भी व्यक्त हुआ है। एक बानगी-
नाहीं दाना पानी बाय ।
नाहीं छप्पर छानी बाय ।
कहां बइठी काव खाई कहां सोई माई जी ।
कहां लरिका खेलाई हंसी रोई माई जी ।।
धोती होइगै तार-तार ।
घरे आवै न बिलार ।
नाहीं सूख भात, नाहीं रोटी पोई माई जी ।
जइसे कोढि़या मा खाज ।
पी कै आवै दारूबाज ।
मारै लठिया से के का गोहराई माई जी ।
टूटी जिनगी कै आस,
नाहीं पाई सल्फास ।
कौने तरवा इनारा मा समाई माई जी ।
कहां लरिका खेलाई हंसी रोई माई जी ।।
गर्मी गरीबों के लिए भली है । इसीलिए उनके सारे मांगलिक कार्य और मेले-ठेले अधिकांशत: इसी ऋतु में होते हैं। होली इन आयोजना का सिंहद्वार है। अबीर, गुलाल और गुझिया का यह पर्व अपनी रसिकता के लिए भी जाना जाता है। ‘फागुन मा दादा देवर लागैं’ इसी की ओर संकेत करती हुई लोकोक्ति है। पीयूष ने अपनी कविता-‘कमरे से ग्राम्य समाज’ कितने ही जीवन्त एवं गत्यात्मक चित्र खींचे हैं, जिनकी मनोहारी छवियों की झलक देखते ही बनती है। पीयूष जी वस्तुत: असहायों और शोषितों के प्रति संवेदना एवं सामाजिक अनीतियों के प्रति पाठक के मन में विद्रोह की भावना जगाना चाहते हैं। वे सामाजिक शोषण और उत्पीड़न के विरोधी हैं। अवधी कविता की समृद्धि में पीयूष जी द्वारा किये जा रहे सभी रचनात्मक कार्य स्वागत योग्य हैं। -
डा. पाण्डेय रामेन्द्र
डा. पाण्डेय रामेन्द्र
पीयूष जी की कविताओं में लोक वेदना है बधाई.राजू मिश्र को प्रस्तूति हेतु धन्यवाद.
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