गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

यूं ही नहीं बन गये वह 'समीर'

इश्क का दामन थामे वह वक्त के साथ बहता चला जा रहा था। उसे भी उम्मीद नहीं थी कि वह जिन अनजान राहों पर चल पड़ा है वो उसे ऐसे मुकाम पर पहुंचा देगी जिसकी तलाश में खुद अनजान बरसों भटका हो। अब इसे इश्क की वफादारी कहें या किसी को पाने की जद्दोजहद वह एक दिन अपनी सारी शीतलता को छोड़ हवा का झोंका बन जाता है। चाहत से भरा आसमान पाने के बावजूद हवा का यह झोंका आज भी जमीन थामे है। जड़ों से अपनी गहरा लगाव उसे बार-बार गांव ले आता है। उसकी कविता में माटी की सोंधी खुशबू मिलती और एक आम आदमी का अक्स दिखता है। बालीवुड का ग्लैमरस संसार कवि हृदय को समीर के नाम से जानता है तो अपना बनारस उसे शीतला प्रसाद पांडेय पुकारता है। एक  दोपहर वाराणसी के मेहतानगर (शिवपुर) स्थित घर पर उनके मोहब्बत के जख्म पर हाथ धर दिया तो वे खुलते चले गए।
बचपन की चर्चा आते ही यादों में खो गए समीर। फूलपुर का ओदार गांव। दादाजी किसान थे। पिता अनजान से लगभग अनजान ही था बचपन। मुंबई में रहते थे और साल-दो साल में जब कभी गांव आते तो यह समझने में वक्त लगता कि वह मेहमान हैं या पिता। खेलते-कूदते, गाते-गुनगुनाते बीता बचपन। कच्चे मकान, तालाब, पोखरे, नाले। ओल्हा-पाती, गुल्ली-डंडा, लुकाछिपी। भैंस की असवारी और पोखरे में 'छपाछप' की वो मस्ती। पगडंडियों से होकर बाजार जाना, गेहूं पिसाना। प्राइमरी स्कूल में पढ़ते समय अक्सर कक्षा से गायब हो जाना। गांव का वह सावन-भादो, मेढ़कों की टर्र-टर्र। सब याद है। ...और याद यह भी है कि मास्टरजी ने पढ़ाई से भागने के कारण जब मेरी रुचि के बारे में जाना तो वह वही कराने लगे। यानी इंटरवल में गाना सुनाता और देखते ही देखते मन लग गया स्कूल में। रोज जाने लगे, रोज पढऩे भी लगे। दोस्तों संग अखाड़ा खोदना अपनी आदत में शुमार रहा। ये सब अहसास जेहन में बना हुआ है जो मेरी रचनाओं को कहीं न कहीं से परिलक्षित होता है। समीर बताते हैं- भैंस की असवारी में बड़ा मजा आता था। यही वजह थी कि पड़ोस की भैंस को चराने की जिम्मेदारी मैं खुद उठा लेता। एक बार वही भैंस पीठ पर सवार होते ही भड़क गई और सरपट भागने लगी। मेरी तो सांस टंग गई। लगा कि बस अंतिम घड़ी आ गई है। तभी मुझे पत्तों का ढेर दिखा और आव देखा न ताव उसी ढेर पर कूद पड़ा। गांव से गुजरते हुए कड़ाहे में खदक रहे गुड़ की सोंधी महक ने चालीस साल पुराना बचपन याद करा दिया। फिर याद आया बचपन का खेत से गन्ना तोड़कर उसे चूसना और फिर यह सावधानी भी कि खेत मालिक को इसका पता न चले।
लिखना कब शुरू हुआ? ग्यारह साल की उम्र में। तब शब्दों के अर्थ पता नहीं थे। बस, कुछ तुक जोड़ा और गुनगुना उठे। हरिश्चंद्र कॉलेज में बारहवीं की पढ़ाई के दौरान कुछ दोस्तों के साथ गंभीर चर्चाएं शुरू हुईं। मंच बना लिया और रचनाओं की त्रुटियों पर चर्चा के साथ विचार-विमर्श का दौर चल पड़ा। तब के नए रचनाकारों शिवकुमार पराग, हिमांशु उपाध्याय, गणेश गंभीर, प्रकाश श्रीवास्तव जैसों का साथ हुआ और शायरी में निखार आने लगा। पहली गजल अखबार में छपी- अजीब कश्मकश में गुजरती है उमर, कभी जिंदगी के सदमे, कभी मौत का है गम। इस रचना पर ग्यारह रुपये पुरस्कार के तौर पर मिले। फिर युवा रचनाकारों में नाम लिया जाने लगा। कवि सम्मेलनों से बुलावा आने लगा। पत्र-पत्रिकाओं ने पूरा तवज्जो दिया। इस बीच मनोरंजन आर्केस्ट्र पार्टी का गठन कर लिया। साथ पढऩेवाले दोस्तों ने मिलकर इसे संभाला। गिटार, बैंजो सब था। मेरी जिम्मेदारी एंकरिंग की थी। फिर बुलानाला में गुप्ता संगीतालय में संगीत की शिक्षा ली। वहीं बैंजो जो बजाना सीखा। पढ़ाई भी साथ-साथ चलती रही। 1988 में जब बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एमकॉम पूरा किया तो लगा कि इतनी पढ़ाई के बाद केवल कविता करना भविष्य के लिए ठीक नहीं।समीर बोले- पिताजी को बताए बगैर मेरी रचनाधर्मिता चलती रही। वह चाहते थे कि मैं पढ़-लिखकर सर्विस या कोई बिजनेस करूं लेकिन मेरी तो अलग ही योजना थी। तब रचनाएं कहीं छपतीं तो उसके बारे में उन्हें नहीं बताता। कुछ छपे तो उनसे छिपाता। कहीं से उन्हें पता चला तो उनका साफ कहना था- बेटा, इस विधा को स्वांत: सुखाय के लिए तो अपना लो लेकिन कभी इसे पेशा न बनाना। शायद उनके जेहन में फिल्मी दुनिया का अपना 17 साल का कठिन संघर्ष रहा। वह चाहते थे कि संघर्ष की जिस आग में वह तपे, उसमें उनका बेटा न जले।
...तो पिताजी नहीं चाहते थे फिर भी आप मुंबई पहुंच गए
? बिल्कुल, एक साल चॉल में गुजारा। सार्वजनिक शौचालय के बाहर डिब्बा लेकर दो-दो घंटे अपनी बारी का इंतजार करता था। इस दौरान पिताजी को आहट तक नहीं लगने दी। एक वर्ष बाद उनसे मुलाकात हुई। तब कुछ सवाल, कुछ मलाल के साथ वह सामने थे। एक रेस्‍टोरेन्‍ट में बैठकर पहले समझाया। अब से भी लौट जाने की सलाह दी लेकिन जब मेरा अटल भाव देखा तो साथ लाए सवालों को सामने रख दिया। पूछा- तुमने किसी से प्यार किया है? मैंने कहा- हां किया है। क्यों किया? मेरा जवाब- जो प्यार करता है वह सोचता नहीं है। जवाब से संतुष्ट पिताजी ने कहा कि यह फिल्म इंडस्ट्री महबूबा के समान है। यह बावफा भी है और बेवफा भी। तुम्हारे जवाब से मै आश्वस्त हो गया। इसके बाद उन्होंने मुंबई में अपने साथ रहने की इजाजत दे दी। साथ ही कहा कि जीवन में यदि नंबर वन हो भी गए तो संघर्ष खत्म नहीं करना। यह एक दर्द है जो जीवनभर साथ रहेगा।पिता अनजान की प्रसिद्धि का जीवन पर क्या असर पड़ा। बचपन गांव में और जवानी मुंबई में? मेरे बचपन में एक तबका ऐसा था जो फिल्मी दुनिया से जुड़े लोगों के बारे में अच्छी भावना नहीं रखता था और दूसरा तबका ऐसे लोगों का जो फिल्मी जीवन जी रहे लोगों को दूसरे ग्र्रह का प्राणी मानता। लिहाजा मैं खुद भी अपने पिता की ख्याति से बचपन में अनजान रहा। मुंबई गया तो पिता ने दो टूक कहा- जितना पैसा मांगोगे दूंगा लेकिन जिस दिन तुम गाने की लाइन बताने के लिए कहोगे, उसी दिन तुम्हें घर से निकाल दूंगा। हालांकि इसके बाद उन्होंने फिल्मी धुनों आदि के बारे में शुरुआती प्रशिक्षण दिया। अपने ढंग से ट्रेंड किया। आज जो कुछ हूं उन्हीं की ट्रेनिंग की बदौलत। कभी मेरी लिखी पंक्ति अच्छी लगती तो मामूली तारीफ करते लेकिन साथ में जोड़ते कि इसे और बेहतर कर सकते हो। कुछ लोगों ने संगीतकार बनाने की कोशिश की लेकिन मुझे पिता का वह वचन हमेशा याद रहता कि एक ही साधे सब सधे...। बार-बार दिशा बदलने से मंजिल नहीं मिलती लिहाजा हमने गीत लिखने के अलावा के सारे ऑफर ठुकरा दिए।
शीतलाप्रसाद कब समीर हो गए? मुझे खुद का नाम अच्छा नहीं लगता था। सोचा बदला जाए। यह जिम्मेदारी मैंने उस लड़की को दी जिससे मोहब्बत करता था। यह नाम उसी का दिया, उसी की अमानत है। अब वह इस दुनिया में नहीं है। यह वाकया 1977-78 का रहा। अपनी वो रचना जो बेहद पसंद है
? हैं तो कई लेकिन जब कहता हूं-
'एक फूल दामन में डाल दूं मधुबन की याद रहेगी,
एक बार चेहरा निहार लूं, दर्पण की याद रहेगी।'
बड़ा सुकून मिलता है। एक दूसरी रचना-
हमसे हुई है ये भूल कई बार
कांटों को समझे फूल कई बार
हमने तो दर्पण को दर्पण समझा
अपने मन जैसा सबका मन समझा
कलियों की क्यारी में पांव रखे हम
तलवों में चुभ गए फूल कई बार।
बात खुद से हटकर जब गीतों के मौजूदा संसार पर छिड़ी तो समीर बोले- ग्लोबलाइजेशन का असर इस पर पड़ा है। खिचड़ी का खेल खूब हो रहा है। वल्र्ड म्यूजिक हिलोरें ले रहा है। फिर तो मौलिकता कहीं गुम हो जाएगी? मौलिकता गुम हो रही है लेकिन यह निराशा का कारण नहीं बनना चाहिए। प्रयोगवाद के इस दौर से कुछ अच्छा ही निकलेगा। जो भी निकल रहा है उसमें भारतीय संगीत की खुशबू जरूर रहती है। और आखिरी सवाल- लोगों की शिकायत है कि इस माटी से निकलकर जब कोई ख्यात हो जाता है तो वह बनारस को भूल जाता है। नहीं, मैं कहता हूं कि बनारस ऐसे लोगों को भूल गया। पिछले दिनों मैं जब अमेरिका में था तो पिताजी के लिखे गीत 'खइके पान बनारसवाला'  सुनकर एक अंग्रेज ने पूछा कि ये बनारस कहां है? क्या बनारस ने अनजान को याद रखा। अब मेरे बहाने उनका नाम कभी-कभार ले लिया जाता है लेकिन उनकी स्मृतियों को सहेजने के लिए कोई पहल नहीं की गई। फिर भी कुछ सपना बनारस के लिए बुन रखा है आपने?  समीर
बोले- मैं चाहता हूं कि यहां एक ऐसा संस्थान स्थापित हो जहां संगीत, साहित्य, संस्कृति का प्रशिक्षण दिया जाय। सेमिनार हों, लोगों का ज्ञान बढ़े लेकिन इसके लिए यहां के लोगों को प्रस्ताव बनाना और आगे बढ़ाना होगा। मैं इसमें पूरा सहयोग देने को तैयार बैठा हूं।     - सरिता त्रिपाठी

24 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छा लगा समीर के बारे में जानना! आभार.

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  2. सरस, जानकारी भरा और ख़ूबसूरत आलेख. ऐसे ही लिखते रहें. शुक्रिया.

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  3. CHaCHu aap to pahle bhi guru the ab, aap it sevi bhi ho gaye hain. gooood sir

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  4. raju bhaiya
    .......kya kahun.... itna achcha ki bar bar padha....soch raha tha kya prtikriya karoon ...par das bees aise lekh ho jaay to ek kitaab ban jaaye aur ham sab use safar men lekar ghoomen. padh kar kuchh seekhen aur .. aur kya kahoon.. bas yahee ki isee tarah apki rachna milti rahe..

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  5. नहीं, मैं कहता हूं कि बनारस ऐसे लोगों को भूल गया। --- bahut gehri baat hai! har jagah kuch kehti hai , uski khusbhoo hoti hai , uske rang hote hain aur wo unhi ko mehsus hoti hai jo use pyaar karte hain , use sun sakte hain.
    Bahut hi sunder lekh hai.

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  6. किसको सराहूं, राजू मिश्र को सरिता त्रिपाठी को या चौमासा को। आज लगा समीर तो अपने हैं। लेकिन समीर जी को बनारस को दोष नहीं देना चाहिए। इस आलेख से कुछ नई जानकारी हुई। राजू भाई शुक्रिया।
    सत्येंद्र, बरेली

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  7. जन्मदिवस की शुभकामना के लिए आपको बहुत धन्यवाद.

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  8. अत्यंत सहजतापूर्वक आप ने समीर जी की जिंदगी को क़लमबद्ध कर दिया... साधुवाद !

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  9. Raju ji,wakai bahut saral ,sahaj dhang sey aapney ek shakshiyat ko saamney khada kar diya .Maja to aaya hi ,bhala bhi laga.likhtey rahiye aur hamey khushiya bhi bantey rahiye.aabhar,
    sader,
    dr.bhoopendra
    jeevansandarbh.blogspot.com

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  10. very nice written... very genuine...
    Meri Nai Kavita padne ke liye jaroor aaye..
    aapke comments ke intzaar mein...

    A Silent Silence : Khaamosh si ik Pyaas

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  11. मेरे ब्लॉगर साथी राजू मिश्र जी को गुफ्तगू की और से जन्मदिन की बहुत-बहुत शुभकामनाये और बधाई.

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  12. ांअपको जन्म दिन की बहुत बहुत बधाई।

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  13. अपने ब्लाग् को जोड़े यहां से 1 ब्लॉग सबका

    ब्लॉग पर भी अपनी एक नज़र डालें,
    कृपया फालोवर बनकर उत्साह वर्धन कीजिये.

    आशा है , आपको हमारा प्रयास पसन्द आएगा!

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